शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

बोलो प्रभु ! कौन हूँ मैं ? (कविता)

बोलो प्रभु !बोलो ! तुम्हें आज  बोलना होगा ,

कौन हूँ मै ? इस सवाल का जवाब देना होगा ।

मै औरत हूँ जगतजननी , शक्तिस्वरूपा अगर ,

क्योंकर बनाया मुझे भोग्या इस आदमी ने ?

मै इंसान हूँ एक जीती जागती ,ब्याँ करना होगा ।

मेरे सपने ,मेरे अरमान और मेरी खवाइशें ,

क्या कोई मायने रखते हैं तुम्हारे लिए ?

करते हो गर तुम स्वीकार तो इसे इस आदमी को भी

तुम्हें समझाना होगा ।

अहंकारी है जो , दंभी , वहशी , स्वार्थी ,कामुक पशु , दरिंदा ,

नहीं बर्दाश्त होता जिसे औरत का  आगे बढ़ना ,

नहीं रास आती उसकी चहुंमुखी तरक्की ,

जान जलती है उसकी ,

पृरुष अहम को ठेस जो लगती है उसके ,

इसीलिए रोकना चाहता है मेरा मार्ग इस तरह से ।

ईर्ष्यावश !! कुंठित होकर ,

मुझे खिलौना समझकर , मुझे प्रताड़ित कर,

कभी घर में कैद कर और कभी मेरा मान -मर्दन कर ,

मेरा आत्म-सम्मान , मेरी जिंदगी और मेरी आबरू को

समाप्त कर क्या साबित करना चाहता है? ,

तुझे समझना होगा।

अगर मै हूँ तेरी सर्व श्रेष्ठ रचना ,

है मुझमें तेरा ही अंश ,आत्म तत्व ,

तो मेरे लिए , मात्र मेरे लिए ,बस एक बार!  फिर !

धरती पर आना होगा ।

मेरे सवालों का जवाब देने हेतु तुझे एक बार तो सामने

आना ही होगा ।

आखिर कौन हूँ मै?  अब तुम्हें इस  पुरुष जगत को ,

अपनी विधि से , चाहे जैसे भी समझना होगा ।

मै नारी रूप में माँ, बहन, बीवी हूँ और बेटी भी ,

मैने हर रूप में अपना सारा जीवन दिया ,

इस पुरुष को सेवा दी, ममता दी, चाहत दी,

स्नेह दिया और अपना भोला मासूम बचपन भी ।

मगर इस कमजर्फ ,एहसान फरामोश आदमी ने मुझे क्या दिया ?

मुझे समझा केवल मांस का टुकड़ा !!

तुम क्यों अब तक इस घोर अन्याय ,अनाचार , पशुता पर भी

खामोश हो ?

बोलो प्रभु !  बोलो ! तुम्हें शीघ्र अति शीघ्र बोलना ही होगा ।

मेरे अस्तित्व पर  मंडरा रहा है खतरा ,

तुम्हें मेरा सरंक्षण करना होगा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

दर्द भरी मुस्कान (गजल)

 

यूं तो है उसके लबों पर मुस्कान ज़रा-ज़रा ,

मगर दिल तो है दर्द से पुरजोर भरा -भरा ।

यह दिखावा इसीलिए भी ज़रूरी जहां के लिए ,

मरहम नहीं!लोगों के पास नमक है ज़रा-ज़रा ।

इक सज़ा की मानिंद जी रहा है वो जिंदगी ,

इंसान है वो कई आज़ारों से भरा- भरा ।

तक़दीर से रूठा हुआ और खुदा से भी खफा ,

है दुनिया की रंगिनियों से बेज़ार ज़रा-ज़रा ।

हर सु बेचैनी च्ंकि सुकून है उससे कोसो दूर ,

ख्वाइशों के तराजू में उम्र को पाया ज़रा-ज़रा ।

अब ऐसे में अपने ख्वाबों की ताबीर कैसे हो ‘अनु’ ,

जब रूह से क़ज़ा की दूरी है बस ज़रा-ज़रा ।

 

 

 

 

वो कौमी एकता कहाँ गयी ( गजल )

 

हिन्दू -मुस्लिम ,सिख -ईसाई ,

आपस में थे कभी भाई-भाई ।

भाई -भाई से जुदा हो गया अब,

यह खाई किसने दरम्यान बनाई ?

एक दूजे के दिल में नफरत की आग ,

आखिर किसने और क्यों भड़काई ?

एक दूजे के मजहब को मान देते थेजो ,

उनमें बैर की तहजीब कहाँ से आई ?

एक दूजे के परिवार को संभालते थे वो,

जब भी उनपर कभी बुरी घड़ी आई ।

अब बने हैं एक दूजे की जान के दुश्मन ,

हाँ !कभी  थे हमदम ,हमराज़ ,हमराही ।

इन नादानों ने तो भगवान को भी बाँट दिया ,

मंज़िल जब एक है तो इतनी राहें कैसे बन आई ?

अरे दिवानों ! महज अपने मतलब के लिए ही ,

इन सियासतदारों ने तुम्हारे बीच दीवार बनाई ।

अब न समझोगे तो कब तलक समझोगे तुम ,

आखिर बरसों पुरानी कौमी एकता कहाँ खोगई ?

वतन पूछता है तुमसे , किसके बहकावे में आकार ,

मेरी गंगो-जमुनी तहजीब की आन तुमने मिटाई ?

मेरे घर के चिरागो! ,मत लड़ो आपस में,अमन से रहो ,

नफरत की आग नहीं,मुझे चाहिए प्यार की रोशनाई ।

करोना का खौफ (गजल)

 

सुनी है जो उनके आने की आहट हमने ,

अपना सारा होशो-हवास गंवाया हमने।

पहले भी सजग थे साफ सफाई को लेकर ,

और अब नया वहम का रोग लगाया हमने।

अपनों से गले लगना,हाथ मिलाना हुआ बंद ,

और अब दूर से सलाम का चलन बनाया हमने ।

अपने ही घर जबसे नज़रबंद होकर रह गए हम ,

इस तरह देखिये खुद को ही कैदी बनाया हमने ।

हमें तो अपना पालतू सर्दी-जुकाम भी दुश्मन लगे ,

कोरोना के डर से अपना बदहाल बनाया हमने ।

अब तो ये आलम है की हर शय वायरस ही दिखे ,

ऐसे दीवाने हम न थे ,खुद को दीवाना बनाया हमने ।

 

 

 

 


लॉक डाउन है तो क्या हुआ ! (कविता)

लॉक डाउन है यदि देश में तो क्या हुआ ,

हो कर रह गए घर में कैद तो क्या हुआ ?

फुर्सत के पल मांगते ही थे तुम कभी ,

अब मिल गया पूरा वक्त तो अच्छा ही हुआ ।

इससे पहले कब फुर्सत थी घर के लिए तुम्हें ,

मिल गया घर चलो इसी बहाने परिचय हुआ ।

गैरों की तरह अपनों से बस ओपचारिकता रही ,

आज उनके बीच बैठे तो प्यार का पादुर्भाव हुआ ।

इस लॉक डाउन ने सिखाया तुम्हें संयम /सहयोग ,

तुम क्या जानो ! तुममें एक विशेष परिवर्तन हुआ ।

इस लॉक डाउन का सकारात्मक पहलू देखोगे तो !

तुमने जिया वो क्षण जो अबतक तुम्हें न मिल पाया ।

यह लॉक डाउन तो एक दिन खत्म हो जाएगा ,मित्रों !

सुनहरा दौर है जीवन का ये याद करोगे गर गुज़र गया ।

 

 

 

 

शून्य (दिवंगत अभिनेताओं की याद में )

 

सुनते आए हैं सदा से,

टूटते हैं सितारे फ़लक से ,

और फिर नए बन जाते हैं ।

गिरता है फूल शाख़ से ,

और फिर नया फूल खिल जाता है।

पेड़ों से पत्ते पुराने झरते हैं,

और फिर नये आ  जाते हैं।

कितना सहज है यह प्रकृति का परिवर्तन !

मगर सभी के लिए आसान नहीं होता यह परिवर्तन ,

वास्तव में तो कुछ आसमान ऐसे होते हैं ,

जो सितारों के टूटने से रिक्त हो जाते हैं।

कुछ गुलशन ऐसे होते हैं जो एक भी फूल के मुरझाने से

मातम में डूब जाते हैं।

और कुछ पेड़ ऐसे भी होते हैं जो  कभी भी अपने से जुदा

हुए पत्ते को भूल नहीं पाते हैं।

ये कुछ  आकुल ,व्याकुल , शोक संतप्त ह्रदय हैं ,

जो अपने सितारों ,अपने फूलों और अपने पत्तों को

कभी भूल नहीं पाएंगे ।

आजीवन भूल नहीं पाएंगे ।

दुनिया के सामने वो सामान्य व्यवहार करेंगे ,

मगर एकांत मिलते ही गम में डूब जाएंगे ।

अपने बिछड़े हुए परिजनो की यादों में ,

गिरफ्तार होकर एक शून्य में खो जाएंगे ।

अंततः सभी  मानव ह्रदय प्रकृति की तरह ,

परिवर्तन शील नहीं होते ।

प्रत्यक्ष में जो दिखते है जैसे ,

वास्तव में वो नहीं होते।

समय की धूल पड़ भी जाए दिल रूपी आईने पर ,

मगर उससे तस्वीर  धुंधली हो बेशक हो जाए ,

मगर मिट नहीं सकती ।

अन्ततः कुछ विशेष लोगों की कमी भी ,

जीवन में कभी पूरी नहीं होती ।

एक शून्य छोड़ जाती है ।

और शून्य की भरपाई कभी नहीं होती।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

हाय रे मजदूर जीवन (कविता)

 हाय रे मजदूर जीवन ,तेरी यही कहानी ,
भूखा प्यासा तन और आँखों में है पानी ।
विकास का पहिया चले देश का तेरे दम पर ,
इस भाग्य विधाता की किसी क्द्र न जानी ।
अपना सबकुछ होम कर जो करते मेहनत ,
परंतु पूरा वेतन देने में मालिक करे आनाकानी ।
कोई पूछे तो इनके दिल से कैसे गुज़र होता है? ,
बड़ी मुश्किल है महानगरों में जिंदगी निभानी ।
महंगाई के इस युग में क्या पहले कम दुखी थे !
उस पर महामारी ने आकर शुरुकर दी पैठ जमानी ।
गाँव से तो आए थे स्वजनो को छोडकर धन कमाने ,
मगर जब जीवन चर्या नहीं तो बेहतर है जान गंवानी ।
मरण तो लिखा ही है मजदूर संग घर मरे या सड़क पर ,
ऐसे में इनकी नज़र में महामारी से बचना है बड़ी नादानी ।
सरकार की योजनाए / सुविधाएं सारी किसके लिए है ?
विश्वास -अविश्वास के चक्रव्यूह में फंसी पूरी कहानी ।
यह कोई दो दलों की राजनीति है या कोई षड्यंत्र रचा हुआ ,
जिनके पाटन के बीच पिस रही है मजदूरों की ज़िंदगानी ।
भाग्य विधाता होकर भी देश का जो है भाग्य हीन ,लाचार,
ऐसे असहाये मजदूर जीवन को देखकर आ जाता है आँखों में पानी।

संवेदनाओं पर तुम्हारा ही अधिकार क्यों ?

 हे मनुष्य !
माना की हम पशु हैं,
परंतु है तो प्राणी ।
प्राण हम में भी बस्ते हैं।
सुख-दुख ,हर्ष -विषाद ,
पीड़ा -आनंद आदि हमारे
जीवन के भी अंग हैं।
भाग्य – दुर्भाग्य हमारे भी
जीवन के साथ ही जुड़ा है।
मान-अपमान को हम भी
महसूस करते हैं।
हम में भी होती है, ममता,प्रेम ,करुणा ,
दया , सहयोग ,जितनी की तुममें ।
अपितु तुम से अधिक ।
तुमने तो यह  सभी अमूल्य निधि खो दी है,
जो तुम्हें मानव बनती थी।
मगर तुम तो हम से भी नीचे गिर गए।
तुमने जो निधि खोयी ,
हमने अब तक सँजो के रखी हुई है,
पशु होकर भी।
हम तो पशु होकर भी कभी पशुता पर नहीं उतरे ।
और तुम मानव होकर मानवता ही भूल गए।
तब भी तुम्हारा इन संवेदनाओं पर अधिकार है  क्यों ?
मात्र इसीलिए ! की तुम सर्वाधिक शक्तिशाली ,बुद्धिशाली
विकसित प्राणी ,इस धरती पर ।
और हम तुमसे निम्न बुद्धि ,निर्बल, मुक ,
अविकसित प्राणी इस धरती पर।
मगर न्यून सही बुद्धि तो है हमारे पास,
तुम्हारे जितना विशाल न सही ,
ह्रदय भी है हमारे पास ।
फिर संवेदनाओं पर केवल तुम्हारा ही एकाधिकार कैसे ?
हमारा समाज भले ही तुम्हारे समाज जैसा विस्तृत और विकसित न हो ,
मगर हमारे समाज में भी एक परिवार होता है,
माँ -पिता ,भाई-बंधु ,सभी होते हैं तुम्हारी तरह ।
मगर तुम्हारे रिश्ते स्वार्थ से बंधे होते हैं, हमारे नहीं।
एक इंसानी माँ की भावनाओं ,और एक पशु माँ की भावनाओं में,
क्या अंतर होता है?
एक इंसानी शिशु , बच्चों की बालसुलभ चंचलता ,हठ में कोई
अंतर होता है क्या ?
वास्तव में हम में  और तुम में कोई अंतर नहीं।
रुधिर तुम्हारे तरह हमारे रगों में भी बहता है।
नयन हमारे भी अश्रु बहाना जानते है।
बेजुबान ही सही ,भावनाओं की भाषा तुमसे अधिक समझते हैं।
चोट ,घाव ,जलन , तपन ,हम भी महसूस करते हैं।
स्नेह का स्पर्श भी महसूस करते हैं।
मगर अफसोस ! तुम्हारे छ्ल ,प्रपंच को हम नहीं समझते ।
यह मानवीय गुण हम में नहीं है।
बस इसी गुण से हम तुमसे पिछड़ गए।
अगर यह गुण हमारे में भी होते तो हम कभी तुमसे न हारते ,
और ना ही धोखा खाते ।
मगर फिर भी हम यही कहते हैं,
हम  तुमसे बेहतर है।
जिन मानवीय उत्तम गुणो की अमूल्य निधि को उम भूल चुके हो ,
जिन संवेदनाओं को भूलकर तुम संवेदनहीन बन गए हो ,
हम अब भी है संवेदन शील तुमसे अधिक ,
तो तुम्हारा संवेदनाओं पर एकधिकार क्यों ?

हम मनोरंजन का साधन नहीं .... (पालतू पशुयों का दर्द )

 हम मनोरंजन का साधन नहीं,
मगर तुम हमें इससे अधिक क्या समझते हो ।
हम तुम्हारे घर की शोभा बढ़ाएँ ,
बस इसीलिए हमें पालते हो ।
हमारे गले में अपने नाम का पट्टा डाल ,
हम पर अपना अधिकार जमाते हो।
फिर बड़ा ख्याल कर पालन-पोषण कर ,
अपार स्नेह लुटाकर हमें अपना आदी बना लेते हो।
और जब मन भर गया गली के किसी नुक्कड़ पर
बेसहारा छोड़ आते हो।
हम उस समय खुद को लुटे हुए ठगा सा महसूस करते हैं।
तुमने तो हमें समझा मनोरंजन का साधन ,
मगर हम नासमझ ,भोले ,मासूम प्राणी तुम्हे अपना खुदा समझ बैठे ।
यह हमारी भूल थी की तुम हो क्या ,और हम तुम्हें क्या समझ बैठे ।
यदि मान लो हम तुम्हारे घर जीवन पर्यंत तक रह ले ,
तो भी तुम अपने जीवन से हमें नहीं जोड़ते ।
दुख-दर्द, गम-खुशी ,हार जीत जीवन की खुद झेलते हो ,
मगर हमें  उसमें शरीक नहीं करते ।
सोचते होंगे ! ”पशु है क्या कर लेगा !”
अरे एक बार तो  सच्चे मन से गले लगाकर तो देखो ,
कसम से बड़ा सुकून पायोगे ।
मैं हूँ हाड़ मास का,चलता फिरता जीव,
मुझमें भी अपने जैसा धड़कता हुआ दिल पायोगे ।
फिर निराशा में अपने जीवन से पलायन की सोच भी न पायोगे।
और यदि ऐसा ख़्याल भी आया तो मेरा ख़्याल कर रुक जायोगे ।
मगर ऐसा हो सकता है तभी जब तुम हमें ,
अपने जीवन का सच्चा और स्थायी साथी बनाओगे ।
क्योंकि हम भी ईश्वर की कृति जीव हैं इस धरती पर ,
कोई मनोरंजन का साधन नहीं।

एक अंजाना सफर (गजल)

आए ही कब थे अपनी खुशी से हम ,

न ही जाना हो पाएगा अपनी खुशी से ।

क़ज़ा जो आ खड़ी हुई दर पर अपने ,

कैसे रुसवा कर सकते हैं हम भला उसे ?

जिंदगी भर की कमाई है जो हमने की ,

खुल रहे हैं नेकियों-बदियों के हिसाब से।

सामने है नज़रों के अब हमारे सारी जिंदगी ,

तस्वीर दर तस्वीर ज्यों किसी फिल्म जैसे ।

सँजोये जीतने मालो -दौलत ,एशो इशरत ,

रिश्ते -नाते सब अब लग रहे  हैं बेगाने से ।

हमारी तो अब हस्ती ही बिखरे जा रही है 'अनु'

जिस्म खाक हो गया रूह के निकल जाने से ।

अरमानो -खवाइशों की औकात की क्या पुछें ,

मिट गयी सब जिंदगी का चिराग बुझने से ।

यह दुनिया है खूबसूरत धोखे से कमतर नहीं,

एहसास हुआ तब जब मिले नूर ऐ इलाही से ।




 

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

हे पिता ! तुम्हें नमन ( कविता) श्राद्ध माह पर विशेष ' तर्पण '




 हे पिता ! आपको नमन ! 

स्वीकारें हमारे श्रद्धा -सुमन ,

जो किए हैं आपको अर्पण । 

आपके आशीष से फले-फुले,

आपके द्वारा ही खिलाया हुआ,

यह सुंदर और प्यारा उपवन ।

आपके दिये संस्कारों / शिक्षा से ,

सदा भरा रहे हमारा जीवन । 

पीड़ी दर पीड़ी ये जोत प्रेरणा की,

करे सदा हमारा मार्गदेशन । 

स्नेह ,प्रेम ,दया , सेवा -भावना ,

परोपकार आदि सद्गुणों से ,

चमकते रहे हमारे मन -दर्पण । 

भौतिक रूप से आप नहीं हो हमारे साथ ,

मगर अप्रत्यक्ष रूप से आत्मिक रूप से ,

हमारे ख़यालों /सपनों में करते हो विचरण । 

हम अकेले कहाँ है इस जगत में ,

आप हमारे हमेशा रहते हो अंग-संग । 

दुआ है यही आप जहां भी हो ,

सदा ईश्वर के सानिध्य में रहे,

और सदा अपना स्नेह और आशीष ,

यूं ही बरसाते रहें । 

बस यही अभिलाषा रखती है ,

आपसे आपकी संतान । 

अपनी आदर -सत्कार, प्रेम, श्रद्धा के 

पुष्प सहित भावनाएं करती है अर्पण।

 


 


 

 

रविवार, 28 जून 2020

तलाश ( गजल )

                                                       तलाश  ( गजल)
                                       

                              मेरी जिंदगी की हर तलाश अधूरी रह गयी ,
                             जो ख्वाब देखे उनकी ताबीर अधूरी रह गयी।

                             लोग कहते है ढुढ्ने पर खुदा भी मिल जाता है ,
                             ख़ुदा क्या मिलेगा जब उसकी राह ही खो गयी ।

                            मैं तो उन अरमानों को रोयूं ,जो पूरे न हो सके ,
                            अपनी तो आंसुओं  में सारी जिस्त घुल गयी ।

                            छोटी सी मामूली चीज़ तो ढुढ्ने से मिलती नहीं,
                            ऐसे में मंज़िल को खोजूँ जो जाने कहाँ खो गयी !

                            जिंदगी में जाने कितनी कीमती चीज़ें मैने खोयी ,
                            जिनकी यादें मेरे ज़हन में बस कैद होकर रह गयी ।
                           
                           खुशी ,सुख ,आनंद,शांति और मन का चैन खोया ,
                           एक बेचैनी ,तड़प और कशमकश बाक़ी रह गयी ।

                            अब भी तलाश है मुझे उसकी,जिसे जिंदगी कहते हैं,
                            जिसे पाने को कई बार ठोकर खाकर मैं गिर गयी ।

                            कोई हमदर्द भी न मिला किसे हाल -ऐ- दिल कहूँ ? ,
                            तलाश -ए-हमराज़ / हमराह भी अधूरी रह गयी ।

                            अब तो बेशुमार दर्द -ओ -गम ही संभाले बैठी हूँ मैं ,
                            इंतेहा जिनकी इस छोटे से दिल में कोई न रह गयी।

                            
                            'अनु'के जज़्बातों की किताब भी बंद ही रही तमाम उम्र ,
                            कौन समझता ?जो दुनिया के लिए पहेली ही रह गयी।
                            
                           

                           
                            

बुधवार, 10 जून 2020

ममता ( कविता)

                                  




           ममता पर किसी का एकाधिकार नहीं, 
         कौन कहता है पशु का इसपर अधिकार नहीं, 
         भगवान ने तो नहीं बनाया कोई ऐसा प्राणी ,
         जिसके भीतर  भावनाओं का  सागर नहीं । 
        हर माँ का दिल अपनी संतान के लिए तड़पता है,
      फिर वो चाहे मानव हो या पशु ,इससे कोई सरोकार नहीं। 
       प्रसव -पीड़ा की वेदना भी तो समान ही होती है, 
     मानवव माँ को अधिक तो क्या पशु माँ को कम होती है ? 
     नारी गर्भ धारण करती है संतान की लालसा में ,
   तो क्या मादा पशु की संतान की लालसा कम होती है ? 
   नारी की बड़ी सेवा करते गर्भावस्था से संतानउत्पति तक , 
  पशु मादा को भी समान देखभाल और प्यार की ज़रूरत होती है। 
 नारी जितना स्नेह लुटाती , दुलारती है अपने नवजात शिशु को ,
 पशु मादा भी अपनी जिव्ह्या से चाटकर दुलारती है अपने शिशु को । 
  अरे मानवो ! इतनी भी मानवता मत भूलो के दानव बन जाओ ,
  इन भोले ,मासूम , बेज़ुबान प्राणियों के जीवन का सत्कार करो , 
   प्रभु की  अनमोल सरंचना / भेंट समझ इनका सरंक्षण करो । 
   आखिर सर्वभोम ममता की परिभाषा यही है होती।
                         
                       
                         
                        
                        

सोमवार, 1 जून 2020

एक स्त्री की अभिलाषा ( कविता )

एक स्त्री की अभिलाषा ( कविता ) 

 

चाह नहीं आसमान पर बैठा दी जायूं ,
चाह नहीं फूलों से सजा दी जायूं ,
चाह नहीं स्वर्णभूषणों से लादी जायूं ,
चाह नहीं रुपयों -पैसों से तौली जायूं ,
चाह नहीं तारीफ़ों के पूलों पर चढ़ाई जायूं ,
चाह तो मुझे महंगे वस्त्रों की भी नहीं ,
चाह मुझे देवी मानकर पूजने की भी नहीं, 
मुझे चाह है बस  इतनी  की इंसान समझी जायूं ।
सत्कार ,सम्मान, स्नेह ,प्रेम हों तुम्हारे नैनो में, 
मिठास , कोमलता , शिष्टता हो वाणी में ,
मीठी निष्कपट मुस्कान हो अधरों में ,
सुनो पुरुष ! 
बस ! इतनी सी है एक स्त्री की अभिलाषा ।




गुरुवार, 28 मई 2020

कौन नहीं मजदूर यहाँ !! ( गजल)

                                                कौन नहीं मजदूर यहाँ !! ( गजल) 

 

                   कौन नहीं मजदूर यहाँ ,बल्कि हर इंसा है मजदूर यहाँ ,
                  समाज के सभी नौकरी पेशा ,क्या मजदूर से कम यहाँ ?

                  हाँ ! यह अनपढ़ नहीं, गंवार नहीं ,उच्च शिक्षा प्राप्त हैं ,
                  मगर चैन -ओ- सुकूनऔर आराम इन्हें भी नसीब कहाँ !

                 यह बड़ी-बड़ी आला कंपनियों में कार्यरत नौकरी पेशा लोग, 
                 एक खूबसूरत तनख़ाह के लालच पर चूस लिए जाते यहाँ । 

                एक जानवर तक को तो मिलता है आराम ,मगर इन्हें कहाँ !
                सुबह से शाम तक जो कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहते जहां ।

                 मजदूरों पर आँसू बहाना बंद कीजिये,दीजिये थोड़ी तवज्जो , 
                 डॉक्टर्स ,पुलिस कर्मी , सफाई कर्मी और सिपाही भी है यहाँ ।

                करोना के सिपाही के रूप में जो आम जनता की ढाल बने हैं ,
                सिर पर कफन बांधे रहते,अपने जीवन की इन्हे परवाह कहाँ !

                अपने वतन की हिफाज़त में जो सीमा पर डटा रहता है फौजी ,
                ऐसी होंसले,बहादूरी औ वतन परस्तीकी मिसाल  मिलेगी कहाँ ? 

                इन्हें नहीं मिलती सरकार की खास सुविधाये,एक वेतन बस !,
                मगर फिर अपनी सारी जिंदगी को मिटा  देते हैं यह वीर जवां ।

                मजदूर तो वो चालक भी है जो बस ,ट्रक ,रेल आदि चलाते हैं,
                देश की सेवा के लिए पहियों /स्टेरिंग पर गुजरती जिंदगी यहाँ ।

                दिन के 24 घंटे जिनके काम में गुज़र जाते हैं बल्कि तमाम उम्र ,
                परिवार का प्रेम ,खुशी ,सुख ,आनंद इन्हें  कभी मिलता है कहाँ ।

               मजदूर तो वह गृहणी भी है जो सुबह से शाम तक घर संभालती है,
               अपने परिवार की सेवा में इसे कोई इतवार या वेतन मिलता हैं कहाँ । 

               ज़रा सोचिए ,समझिये और दिल पर हाथ रखकर महसूस कीजिये। 
               अपने और अपने परिवार के गुज़र के लिए हर इंसान है मजदूर यहाँ ।  
              
               
 
              
               

               
                
                
               

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

मै हूँ करोना .... ( कविता)

मै  हूँ करोना .... ( कविता)

मै हूँ क़ातिल करोना ,
मुझसे तुम डरो ना!
मेरी राहों में आकर ,
बे मौत भी मरो ना ।
खांसी,जुकाम,बुख़ार ,
उल्टी फिर निमोनियाँ ।
समझकर मामूली रोग ,
इन्हें नज़रअंदाज़ करो ना ।
ये रोग बनाते आसां मेरी राहें ,
इसीलिए अनदेखी करो ना ।
बहुत याराना निभा लिया ,
मगर अब परस्पर दूर रहो ना !
मै हूँ करोना,किसी को नहीं बख़्शता ,
कोई भी धर्म ,जाति ,लिंग या रंग ,
कोई प्रदेश, चाहे दुनिया का कोई भी कोना ।
गरीब -अमीर भी मेरे लिए समान है ,
मुझे मतलब है एक जिस्म से ,
जिसमें मुझे अपना वायरस है पहुंचाना ।
तो हो जाओ खबरदार ,मै किसी का सगा नहीं ,
मै हूँ बेहद खूँखार ,जानलेवा करोना ।



 


बुधवार, 15 अप्रैल 2020

लॉक डाउन का पालन करें ( कविता )


 लॉक डाउन का पालन करें (  कविता )

हाथ जोड़कर करते हैं तुमसे हम प्रार्थना ,
इस मानव-जाति को बचाने की है याचना ।
घर के बाहर बैठा है घात लगाए एक रावण ,
तुम्हें करना ही होगा लक्ष्मण रेखा का पालन ।
ध्यान रहे घर में है जीवन ,और बाहर है मरण ,
घर में रहकर ही जा सकते हो प्रभु की शरण ।
तन से ही दूर हो मगर मन से तो दूर नहीं,
यह बंधन है स्नेह का कोई कारावास तो नहीं ।
फिर क्यों नहीं समझते,क्यों करते हो आनाकानी ? ,
घर से निकलते हो,लोगों से मिलते हो,ये है नादानी ।
भगवान के लिए ! महानुभावों ! यह नादानी न करें ,
स्वस्थ रहें ,जीवित रहे और लॉक-डाउन का पालन करें ।









बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

हैवानियत का रोग ( दिल्ली के दंगाईयों के लिए )

                              
                                               

                           
                                   हैवानियत का रोग ( दिल्ली के दंगाईयों के लिए )

                                 यह क्या रोग लगाया है तुमने जिस्त को अपनी ,
                                 क्या कहें तुम्हें हम कलहपसंद ,क्रोधी या खूनी ।
                                किसके बरलगाने पर तुम बहक हो गए हो इतने ,
                               अपने होश खो बैठे हो ,बन गए हो इस कदर जुनूनी ।
                              इतना भी न समझते हो तूम ,क्या हो गए हो शदाई ,
                              कुछ खुद्गर्जों के मोहरे बनकर कर रहे हो नादानी ।
                              तुम्हारा ही घर है यह ,और तुम्हारे ही अपने लोग ,
                              जिन्हें मिटाकर लिख रहे हो गद्दारी की वही कहानी ।
                              ओ सभ्य समाज में रहने वाले विचार शील प्राणी !!
                              अपनी जोश में होश खोकर मत बर्बाद करो जवानी ।
                              तुम्हें गर कोई बात नापसंद हो आपसी सुलह से सुलझाओ ,
                              मार-काट ,दंगा -फसाद ,तोड़-फोड़ की छोड़ो रीत पुरानी ।
                              'अनु' की गुजारिश है तुमसे मेरे वतन में अमन रहने दो ,
                               बाज़ आ जाओ इस दहशतगर्दी से फौरन तुम अपनी ।