समय की रफ़्तार और मैं ( कविता )
समय की रफ़्तार है बहुत तेज़ ,
और मैं हूँ अपने शिथिल क़दमों के साथ ,
क्या करूँ? ,
मुझे समय के साथ कदम से कदम मिलाकर
क्यों ?
क्या मैं कमज़ोर हूँ ?,
क्या मैं विकलांग हूँ ?
मैं तो विक्षप्त भी नहीं हूँ .
या मैं किसी सहारे की आशा कर रही हूँ ,
जो मुझे इस रफ़्तार के साथ चलना सिखाये .
किसको है इतनी गर्ज़ !
समय अपनी रफ़्तार से चला जा रहा है ,
मुझे ऐसा एहसास होता है .
भले ही मैं अपने अंतर्द्वंद खोई रहती हूँ ,
और अपने अधूरे सपनो में ,
मेरा दिलो -दिमाग भले ही कितनी ऊँची उड़ाने भर ले ,
मेरी आशाएं भले ही मुझे कितने भी उकसायें ,
मुझे सड़क की तरफ धकेलें ,
मगर मुझे मालूम है .
समय की रफ़्तार बहुत तेज़ है .
मेरी सारी शक्तियों ,क्षमतायों से भी जायदा तेज़ .
मगर यह भी सच है ,
की जिंदगी एक सफ़र है .
और मुझे चलते ही रहना होगा ,
धीरे -धीरे ही सही .
मंजिल मिले ना मिले ,
भले आधे रास्ते पर जिंदगी की शाम हो जाये ,
इसीलिए मैं इस दुनिया की सड़क के किनारे -किनारे ,
धीरे -धीरे बस चल रही हूँ .
सारी दुनिया आगे बड़े जा रही है ,
अपनी -अपनी मंजिल को पाने की खातिर ,
कोई दौड़ रहा है ,
कोई तेज़ कदमो से चल रहा है ,
कोई समय के पीछे ,
कोई समय के साथ ,
तो कोई समय के आगे.
मैं इन सब की बराबरी नहीं कर सकती ,
मैं समय से टक्कर नहीं ले सकती ,
वर्ना कुचली जाऊँगी .
क्योंकि समय की रफ़्तार है तेज़ ,
बहुत तेज़ ....