अरावली का दर्द (कविता)
सुन सको तो सुनो ज़रा ,
अरावली का दर्द .
तुम्हारे प्रदुषण से उसका ,
चेहरा हुआ ज़र्द .
तुम्हारी फैलाई गंदगी से ,
मैला होरहा उसका आँचल .
सुख की वर्षा में जीने वाली ,
अब सहती है गम के बादल .
कौन समझे उसका दर्द ..
कभी लहलहाता था उसका आँगन ,
हरियाली और खुशहाली से .
अब तो हर तरफ पसरा है विराना,
खिन्न रहती है अपनी बदहाली से.
आहें भरती है दिन रैन वो सर्द ...
कल तक तो यहाँ बसेरा था,
अनेक पशु-पक्षियों और वनस्पतियों का.
गहरे वनों से आछन्न,जल राशी से परिपूर्ण ,
लूट गया सब ,जबसे साया पड़ा पूंजीपतियों का.
अपनी ही धरती माता को लूटने वाले यह मर्द !!
अपनी ही धरती माता को लूटने वाले यह मर्द !!
ऐसा खंजर चलाया उसके जिस्म पर,
उसके क्षत विक्षत जिस्म से रिस्ता है लहू .
शायद ही कभी तुम सुनना चाहो उसके दर्द भरी आहें,
सुनने के लिए दिल हो तो मैं कुछ बयां करूँ .
मैने ही महसूस किया है उसका दर्द ...
कितना भूखा है रे तू इंसान ! तौबा !!
और हद से जायदा दम्भी और लालची भी .
बेशक सारी कायनात खा-डकार कर भी ,
तेरा पेट नहीं भरने वाला इस पर भी .
तुमने तो वहशीपन की कर दी हद ...
तुमने तो वहशीपन की कर दी हद ...
यह शहरीकरण ,यह उद्ध्योगीकरण क्या है?
तेरी अंतहीन भूख और बेशुमार ज़रूरतों का बहाना है.
अरे स्वार्थी ,निर्लज्ज ! अपने स्वार्थ में तूने ,
उससे छीन लिया ईश्वर-प्रदत प्रकृति का खजाना है.
वो भी तू छीन लेगा अरे जल्लाद !
वो भी तू छीन लेगा अरे जल्लाद !
अपनी स्वार्थपरता ,लालच और एकाधिकार ने ,
धरा के प्रत्येक प्राणी ,जड़-चेतन का छीन लिया जीने का अधिकार .
मगर तू भूल गया अपने ऐश्वर्य /सुख में अरे मुर्ख !
प्रकृति न रही तो क्या बचेगा तेरे और तेरी संसृति का जीवन आधार.?
अब तो बस कयामत आने को है तेरे द्वार पर जल्द ...
अब तो बस कयामत आने को है तेरे द्वार पर जल्द ...