हैवानियत का रोग ( दिल्ली के दंगाईयों के लिए )
यह क्या रोग लगाया है तुमने जिस्त को अपनी ,
क्या कहें तुम्हें हम कलहपसंद ,क्रोधी या खूनी ।
किसके बरलगाने पर तुम बहक हो गए हो इतने ,
अपने होश खो बैठे हो ,बन गए हो इस कदर जुनूनी ।
इतना भी न समझते हो तूम ,क्या हो गए हो शदाई ,
कुछ खुद्गर्जों के मोहरे बनकर कर रहे हो नादानी ।
तुम्हारा ही घर है यह ,और तुम्हारे ही अपने लोग ,
जिन्हें मिटाकर लिख रहे हो गद्दारी की वही कहानी ।
ओ सभ्य समाज में रहने वाले विचार शील प्राणी !!
अपनी जोश में होश खोकर मत बर्बाद करो जवानी ।
तुम्हें गर कोई बात नापसंद हो आपसी सुलह से सुलझाओ ,
मार-काट ,दंगा -फसाद ,तोड़-फोड़ की छोड़ो रीत पुरानी ।
'अनु' की गुजारिश है तुमसे मेरे वतन में अमन रहने दो ,
बाज़ आ जाओ इस दहशतगर्दी से फौरन तुम अपनी ।