मैं .... (एक गृहणी की डायरी ) { कविता }
मैं नारी हूँ आभागी ,
पीड़ा से संतप्त ललना .
जन्म तो दिया विधाता ने ,
मगर भूल गया सुख देना .
मैं हूँ जन्मों की प्यासी ,
प्रेम की एक बूँद को तरसती .
भावनाशुन्य लोगों की आँखों को ,
बड़ी हसरतों से हूँ तकती .
मैं भी हूँ मनुष्य जीती जागती ,
मुझमें भी है नन्हा सा दिल और विस्तृत दिमाग .
मगर यह पत्थर दिल नहीं समझते ,
गुरुर में अंधे हो रोंदते है मेरी भावनाएं /विचार ,
जिनके दुर्व्यवहार से लगती है तन-बदन में आग.
मैं कोल्हू का बैल बनी रहती हूँ,
सुख और आराम से कोसों दूर ,
कर्तव्य, जिम्मेदारियां और सेवा ,
इन फांसी के फंदों में सदा रहती हूँ झूल .
अपना जीवन देकर भी ना मिला ,
मुझे कभी प्यार,सम्मान और अपनापन .
अपने अधिकारों की बात करूँतो ,
सुनने पड़ते है अपशब्द और मिलता है अपमान .
ठगी जाती है जो सदैव अपने पति और बच्चों से ,
मैं वोह उपेक्षित /तिरस्कृत माँ और पत्नी हूँ.
अड़तालीस घंटे काम करने वाला बंधुया मजदूर ,
हाँ ! दुनिया के सामने कहने को धर्म पत्नी हूँ.
उच्चकुल ,उच्च शिक्षा प्राप्त ,बहुप्रतिभाशाली ,
होकर भी जिसकी श्रेष्ठता हमेशा दबी रह गयी .
सुसंकारी ,पवित्र ,निश्छल ,निष्कपट , नेक आत्मा ,
होकर भी अनेक अभियोगों / यातनाओं से भरी गयी .
कोसती हूँ उस दिन को बार -बार ,
जब यह अनचाहा , बेमेल बंधन यह बांधा था ,
हाय यह भोलापन ! कंकर को हीरा समझ बैठे ,
बिना जाने -पहचाने ,बिना तहकीकात के लिए निर्णय ,
दुर्भाग्य कहो चाहे इसे ,अंजाम यह हमारा होना था.
उम्र भर अब आँखों में आंसू और जुबां पर आहें ,
बस यही इन रिश्तों से मैने पाया है .
कभी तो मुक्ति मिलेगी इन सब से ,
बस इसी विश्वास को जिंदगी को अब तक ढोया है.
काश !! कोई तो फ़रिश्ता आये इस मजबूर /मजलूम की थामने बाहें .
उम्र भर अब आँखों में आंसू और जुबां पर आहें ,
बस यही इन रिश्तों से मैने पाया है .
कभी तो मुक्ति मिलेगी इन सब से ,
बस इसी विश्वास को जिंदगी को अब तक ढोया है.
काश !! कोई तो फ़रिश्ता आये इस मजबूर /मजलूम की थामने बाहें .