एक स्त्री की अभिलाषा ( कविता )
चाह नहीं आसमान पर बैठा दी जायूं ,
चाह नहीं फूलों से सजा दी जायूं ,
चाह नहीं स्वर्णभूषणों से लादी जायूं ,
चाह नहीं रुपयों -पैसों से तौली जायूं ,
चाह नहीं तारीफ़ों के पूलों पर चढ़ाई जायूं ,
चाह तो मुझे महंगे वस्त्रों की भी नहीं ,
चाह मुझे देवी मानकर पूजने की भी नहीं,
मुझे चाह है बस इतनी की इंसान समझी जायूं ।
सत्कार ,सम्मान, स्नेह ,प्रेम हों तुम्हारे नैनो में,
मिठास , कोमलता , शिष्टता हो वाणी में ,
मीठी निष्कपट मुस्कान हो अधरों में ,
सुनो पुरुष !
बस ! इतनी सी है एक स्त्री की अभिलाषा ।
पुष्प और स्त्री की अभिलाषा,
जवाब देंहटाएंभिन्न है हैं दोनों की परिभाषा,
एक देश पर मिटने को तत्पर ,
पर दूजी चाहती है है केवल
पुरुष नयन में सम्मानित भाषा |
सुंदर प्रस्तुति |
अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंFalse the ego of ladies is responsible for their position
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