मुसाफिर है जिंदगी ( ग़ज़ल)
मंजिल क्या मिलेगी गर राह ही न मिले,
दामन उलझा आती हूँ काँटों में कहीं।
उफ़ !ज़हन की कशमकश औ उलझने ,
में जी रहीं हूँ घुटन में कहीं।
आहों से मेरी किसी को होती है शिकायत ,
तो और किसी को कोफ़्त कहीं।
हर सु रहता है खौफनाक मंज़र मेरे जानिब ,
वक़्त गुज़रती हूँ में रो-रो कर कहीं।
में जहाँ जायुं जाती है मेरी तन्हाई भी वहीँ,
बदनसीबी से गहरा रिश्ता है मेरी जिंदगी का कहीं।
बांह पकड़कर यह कौन मुझे बाहर ले आया,
या खुदा ! कहीं वोह तुम्हीं तो नहीं।
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