दाग ( ग़ज़ल)
तू है मेरी बदनसीबी का दाग ,
जो मेरे दामन पर है लगा।
तू है मेरी राह का पत्थर ,
जो मेरे क़दमों को है रोकता।
तेरे ख़यालात ,नजरिया औ ज़ज्बात ,
एक मकबरे से कम नहीं लगता।
तेरी बातें है ज़हर में डूबे तीर ,
जिसने हमें सदा घायल है किया।
तेरा साथ है जैसे काँटों से भरा जाल,
पल-पल जो नश्तर की तरह है चुभता।
पहले तो फ़रिश्ता फिर शैतान , वाह !
किस तरह एक इंसान रूप है बदलता।
पूरी तरह ज़ख़्मी हुए दिल दे उठते है सवाल,
क्यों कर कोई किसी की नज़रों से है गिरता।
अब तो खुदा से हमारी एक ही गुजारिश है ,
या तो मौत देदे या दे कोई रिहाई का रास्ता।
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