जीव -जंतुओं की करुण पुकार
हमें जीने दो ....(कविता)
हमें जीने दो , हमें जीने दो ,
यह धरती जितनी है तुम्हारी ,
उतनी ही हमारी भी ,
इस धरती पर हमें भी रहने दो ....
माँ सामान नदियों को मैला कर दिया ,
कुओं व् तालाबों पर भी हक जमा लिया ,
हम क्यों पिए गंदे नाले का पानी ,
हमारे लिए एक जलस्त्रोत तो छोड़ दो ....
अत्यधिक वायु प्रदुषण से हवाएं हुई ज़हरीली ,
दम घुट रहा हमारा ,आँखें हो गयी पनीली ,
श्वास अवरुद्ध हो गए तो कैसे जीवित रहेंगे ?
दया करो ! हमारी प्राण वायु को बक्श दो ....
जिन वृक्षों से मिलते थे ,फल-फुल,
ओषधि व् घनी ,शीतल छाया ,तुम्हें ,
वही था छोटा सा आशियाना हमारा ,
उन्हें मिटाने का क्या अधिकार था तुम्हें ?
अब हम कहाँ रहें हमें जवाब दो ......
हमारी धरती का गौरव थे यह उतंग पहाड़ ,
बड़े जीवों का सुरक्षित आश्रय थे यह पहाड़ ,
डायनामेट से जिन्हें तुमने नष्ट कर दिया ,
वर्षा करने में जो सहायक थे यह पहाड़ .
हम कहते हैं अब यह बर्बादी बंद कर दो .....
यह विशाल प्रकृति ,और इसके संसाधन ,
इससे प्राप्त फल-सब्जियां और अन्न ,
सब हथियाकर भी तुम्हारी तृप्ति नहीं हुई ,
तुम हो कितनी स्वार्थी ,लालची , यह बात लो मान .
तुम्हारी हद कहाँ तक जाएगी ,यह बता दो .....
तुमने तो प्राचीन काल से अब तक यह धर्म बनाया,
हम बेजुबानो का शिकार करना ,अपना कर्म बनाया ,
तुमने छीना हक हमसे जीने का भी , और हमें पीडाएं दी,
जाने क्यों ! और क्या सोचकर विधाता ने तुम्हें इंसान बनाया .
अब बस भी करो , यह वहशियानापन बंद कर दो ....
सुनो मानव ! यदि तुम ना मानोगे , तो
हमारी मूक आत्मा की चीत्कार प्रभु तक जाएगी .
वोह देगा तुम्हें तुम्हारे गुनाहों की सज़ा ,
यह सारी दास्तान दर्द भरी उसे सुनाई जाएगी .
जब हम याचना करेंगे उससे , हे प्रभु ! हमें इन्साफ दो....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें