मेरे भीतर का मौसम ( कविता)
मेरे अंदर का मौसम है बड़ा ही विकट ,
आशा -निराशा के धुप- छाव का खेल चलता
रहता है इसके भीतर .
और कभी कु शंकायों का गहरा जाता है संकट .
उम्मीद की धुप निकलती है कभी ,
मगर कितने समय के लिए ?
खुशियों की चांदनी रात मिलती है ,
बस कुछ पल के लिए .
खुल के बिखर ही नहीं पाते हास्य -मुस्कान के मोती .
और सब पर ग्रहण सा लग जाता है।
उफ़ ! यह रोज़ -रोज़ की नयी - नयी उलझने
ओलों की तरह गिरती रहती है मेरे सपनो के
धरातल पर .
क्या होगा?
कैसे होगा ?और
कब होगा ?
जैसे प्रश्नों के भंवर हों ,
या हैं यह ज़हन में रह- रह के चमकती ख्यालों की
बिजलियाँ .
जो ऐसा कम्पन पैदा करती है ,
की सिहर उठती हूँ मैं .
मगर मेरे भीतर चाहे कुछ भी घट
रहा हो इससे लोगों को क्या !
लोगों को तो आदत है ठहरे हुए पानी में कंकड़ मारने की।
मेरी भावनायों के सरोवर में भी लोग
फेंक देते है अपनी उपेक्षा व् अलोचनायों के पत्थर .
ऐसा समुद्री तूफान उठ खड़ा होता है की
की कुछ मत पूछो !
फिर ऊँची -ऊँची उठने लगती हैं बेसब्री और असंतुष्टि की
लहरें।
जिन्हें खामोश करना बड़ा कठिन हो जाता है।
कुछ ही स्थिर नहीं रह पाता फिर
सारी सृष्टि डावांडोल हो जाती है ,
जैसे प्रलय का आगमन होने वाला हो .
मेरे अंदर का मौसम अब यही इशारे कर रहा है .
की अब बहुत कुछ घटित होने वाला है .
प्यासी रही जो ता -उम्र आत्मा ,
उसे पीने को समुन्द्र मिलने वाला है।
सारी कायनात अब उसमें समाने वाली है।
अपने अहंकार में खोयी यह दुनिया ,
एक गहरी खाई में गिरने वाली है।
तभी नज़र आएगा कुदरत का कानून ,
जब करवटें लेगा
मेरे भीतर का मौसम .
और सब पर ग्रहण सा लग जाता है।
उफ़ ! यह रोज़ -रोज़ की नयी - नयी उलझने
ओलों की तरह गिरती रहती है मेरे सपनो के
धरातल पर .
क्या होगा?
कैसे होगा ?और
कब होगा ?
जैसे प्रश्नों के भंवर हों ,
या हैं यह ज़हन में रह- रह के चमकती ख्यालों की
बिजलियाँ .
जो ऐसा कम्पन पैदा करती है ,
की सिहर उठती हूँ मैं .
मगर मेरे भीतर चाहे कुछ भी घट
रहा हो इससे लोगों को क्या !
लोगों को तो आदत है ठहरे हुए पानी में कंकड़ मारने की।
मेरी भावनायों के सरोवर में भी लोग
फेंक देते है अपनी उपेक्षा व् अलोचनायों के पत्थर .
ऐसा समुद्री तूफान उठ खड़ा होता है की
की कुछ मत पूछो !
फिर ऊँची -ऊँची उठने लगती हैं बेसब्री और असंतुष्टि की
लहरें।
जिन्हें खामोश करना बड़ा कठिन हो जाता है।
कुछ ही स्थिर नहीं रह पाता फिर
सारी सृष्टि डावांडोल हो जाती है ,
जैसे प्रलय का आगमन होने वाला हो .
मेरे अंदर का मौसम अब यही इशारे कर रहा है .
की अब बहुत कुछ घटित होने वाला है .
प्यासी रही जो ता -उम्र आत्मा ,
उसे पीने को समुन्द्र मिलने वाला है।
सारी कायनात अब उसमें समाने वाली है।
अपने अहंकार में खोयी यह दुनिया ,
एक गहरी खाई में गिरने वाली है।
तभी नज़र आएगा कुदरत का कानून ,
जब करवटें लेगा
मेरे भीतर का मौसम .
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