सफ़र ( ग़ज़ल)
ना अपनी ख़ुशी से आये , ना अपनी ख़ुशी से गए,
जिंदगी थी उन्हीं की दी हुई वही चलाते गए।
जितना भी दिया ,खूब दिया उन्होंने ,
उनका दिया उम्र भर खाते गाये।
फिर भी मांगने की आदत थी हमें ,
जो भी मांगते रहे वोह देते ही गए।
मतलब परस्त थे हम मिलने पर खुश हुए ,
ना मिला तो खुदगर्ज़! शिकायत करते गए।
मौत की ना की परवाह ,ना ही जहनुम की,
शैतान जिस तरह नचाता रहा ,नाचते हम गये.
जिंदगी तो ख़त्म हो गयी ,पर ना ख़त्म हुई हसरते ,
इस दौर- ऐ-जूनून में ज़रूरतों की इन्तेहा नापते गए।
उम्र के इस दौराहे पर अब मगर हमें यह अफ़सोस है ,
दिल लगाया दुनिया-ऐ-फानी से ,क्यों उन्ही को उनसे ना मांग पाए।