ताश के पत्ते (कविता )
मनुष्य के सपनो का अस्तित्व ही क्या है ?
जैसे हो कुछ ताश के पत्ते ,
कितनी ही बार एक -एक पत्ता जोड़कर
अपने सपनो का महल बनाता है इन्सां ,
मगर उतनी ही बार दुर्भाग्य की हवा चलती है ,
और सारे के सारे यूँ बिखर जाते है ,
मनुष्य फिर प्रयास करता है ,
फिर एक-एक पत्ते को जोड़कर ,
एक दुसरे के साथ टिका-टिका कर ,
बा-मुश्किल उन्हें खड़ा करता है ,
मगर यह क्या !
सब खिड़की -दरवाज़े बंद किये तब भी ,
घर की छोटी -मोटी चीजों की दिवार सी बनायीं ,
तभी भी।
एक हलकी सी हवा ने ही सपनो का महल गिरा दिया
और पत्ते फिर बिखर गये.
यह हवा आखिर आई कहाँ से !
शायद यह खुद के ही श्वास थे।
कारण चाहे कुछ भी हो ,
सपनो के महल ने टूटना था ,
सो टूट गया .
मगर यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा ?
जब तक यह जिंदगी है.
जब तक है साँस में साँस।
जैसे ही जिंदगी ख़त्म हुई ,
जैसे ही श्वासों की डोर टूटी ,
महल तो क्या ,
यह घर भी अपना ना रहा.
ताश के पत्ते मगर अभी तक फर्श पर ,
यूँ ही बिखरे हुए पड़े रहे.
क्या सपनो का महल बन सका?
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