अधिकार ( कविता)
मैने दिया तुम्हें अपना समर्पण ,
मैने किया अपने आँचल से ,
तुम्हारे पथ का बुहारन,
तुम इसे मेरी दासता समझ बैठे .
मैने की तुम्हारी प्रतीक्षा ,
परदेश जाने पर ,
और तुम्हारे वियोग में
बहुत रोई .
तुम इसे मेरा पागलपन समझ बैठे .
मैने धरा हर गुनाह तुम्हारा ,
अपने सर ,
मगर तुम इसे अपना अधिकार समझ बैठे .
मैने हर कष्ट सहे ,
परिवार और समाज जो भी मुझे दिए।
और तुम इसे मेरी विवशता समझ बैठे .
यह मेरा सम्मान था तुम्हारे प्रति ,
जो तुम मुझे ना दे सके ,
क्योंकि तु म ही हो पुरुष
पृथ्वी पर सम्मान के पात्र ,
मैं स्त्री नहीं !
क्या तुम्हारा ही अधिकार है ,
समस्त पृथ्वी पर ?
मेरा नहीं !
तुम्हें तो भेजा था इश्वर ने
मेरे पालन और सरंक्षण हेतु .
मगर तुम तो खुद को ही ,
सच में ही मेरा स्वामी समझ बैठे .
आपको पहली बार पढ़ा....बढ़िया लगा ... आप ने भी एम.ए हिन्दी किया है खुशी हुई जानकर... आप भी पधारो ....मेरा पता है ....http://pankajkrsah.blogspot.com
जवाब देंहटाएंdhanywaad!
हटाएं