मंगलवार, 1 जुलाई 2014
शनिवार, 14 जून 2014
पिता (कविता )
पितृ -दिवस पर विशेष
पिता
पिता हैं एक वृक्ष है ,
छत्र -छाया में जिसकी ,
सुकून पाएं हम।
पिता हैं एक आधार ,
सम्बल पाकर जिनका ,
सुरक्षित रहें हम।
पिता हैं एक शक्ति -पुंज ,
संचरित होकर उनसे ,
बलवान बने हम।
पिता हैं प्रेरणा भी ,
धारण कर उनका मार्ग ,
जीवन को सफल करे हम।
पिता हैं ज्ञान - संस्कार भी ,
आदर्शों पर उनके चलकर ,
मानव कहलाये हम।
पिता हैं हमारे सबसे अच्छे मित्र ,
हमराज़, हमदर्द ,हमराह भी ,
मार्ग -दर्शन पाकर जिनकी ,
संघर्षों से विजय पाएं हम।
पिता की अंगुली पकड़ ही तो ,
हमने चलना सीखा।
पिता की आँखों से ही दुनिया को ,
हमने देखना सीखा।
महसूस कर त्याग -बलिदान उनका ,
क्यों न उनके समक्ष शीश झुकाएं हम।
पिता है तो सब कुछ है ,
जीवन है ,और जीवन का आनंद है।
पिता नहीं तो कुछ भी नहीं।
पिता का मूल्य उनसे पूछो ,
जिनके पिता नहीं.
क्योंकि पिता हैं बच्चों के लिए अनमोल।
दुनिया की कोई दौलत नहीं.
तो क्यों न आज के शुभ दिन ,
अपने पिता को शत-शत नमन करे हम.
गुरुवार, 12 जून 2014
are barkha rani ! ab to aa jaa (kavita)
आषाढ़ माह पर विशेष
अरे बरखा रानी ! अब तो आ जा (कविता)
अरे ! बरखा रानी !
अब तो आ भी जा।
व्याकुल हो रहे हैं हम ,
तेरे बिन ,अब तो दरस दिखा जा। ....
१, उमड़ -घुमड़ कर ,
गरज -बरस कर ,
जब बादल यह छाएंगे।
काले - कजरारे तेरे नैनो से ,
तेरा संदेशा लेकर आएंगे।
इसी आस पर ही हम तकते है आसमान को।
के कहीं से तो तू दिख जा।
अरे बरखा रानी। .......
२, प्यासी है धरती ,
प्यासा है अम्बर।
प्यासा है जड़-चेतन ,
प्यासे है जलचर -नभचर।
हम मनुष्य भी प्यास से त्रस्त हैं।
अपनी ठंडी -ठंडी फुहारों से सबकी प्यास बुझा जा।
अरे बरखा रानी। .......
३, तेरी बूंदों की टप- टप ,टिप-टिप को ,
सुनने को यह कान तरस गए।
तू तो ना बरसी अब तलक ,
मगर ये नयन हमारे बरस गए।
तेरे इंतज़ार मैं गुज़रते हैं दिन-रात ,
अब तो झलक दिखला जा।
अरे बरखा रानी ……
४, तुझे छूकर बहती है जब ,
यह ठंडी -ठंडी मस्त हवाएँ।
हाय ! कितनी सुहानी लगती हैं ,
यह महकी -महकी मदमस्त फ़िज़ाएं।
मन -मयूर नाच उठता है इनकी मस्ती में ,
आ! तू भी हमारे संग आकर झूम जा।
अरे बरखा रानी। ……
५, सुख चुके हैं सभी जलाशय ,
नदियां ,सरोवर व् कुंएं।
खेत -खलिहान सूखे ,
बाग़-बगीचे सूखे ,
फूलों -कलिओं के मुख भी हैं मुरझाये।
फिर भी तू क्यों देर लगाये।
इन्हें मन -भर पानी दे जा।
अरे बरखा रानी -…।
६, तेरी रेशम सी बूंदें ,
जब धरती पर पड़ती हैं।
सुन ऐ मानिनी !
एक सोंधी सी प्यारी सी महक ,
मिटटी से उठती है।
इस वसुंधरा पर हरियाली की
धानी चुनर ओढ़ा जा।
अरे बरखा रानी। …।
७, सुन ओ बरखा दीवानी ,
तू तो है प्रकृति की परम दुलारी।
मौसमो की तू सहचरी ,
सारा जगत है तेरा पुजारी।
ओ जीवनदायिनी !
इस सृष्टि को जीवन दे जा।
अरे बरखा रानी। …।
८, हाय ! यह सूरज कैसी आग बरसाए ,
हमसे अब यह गर्मी सही ना जाये।
उसपर ज़ालिम ! बिजली नखरे दिखाए।
यूँ लगे है अब बस यह जान निकली जाये।
तन-मन को प्रफुलित करने को ,
इस रूह को सुकून देने को।
अब तो बस आ ही जा।
अरे बरखा रानी। ……
गुरुवार, 5 जून 2014
yeh prakriti kuch kehti hai ..... (kavita)
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
यह प्रकृति कुछ कहना चाहती है .... (कविता)
यह प्रकृति कुछ कहना चाहती है ,
अपने दिल का भेद खोलना चाहती है ,
भेजती रही है हवाओं द्वारा अपना संदेशा।
ज़रा सुनो तो ! जो वह कहना चाहती है।
उसका अरमान ,उसकी चाहत है क्या ?
सिवा आदर के वो कुछ चाहती है क्या ?
बस थोड़ा सा प्यार ,थोड़ा सा ख्याल ,
यही तो मात्र मांग है इसकी ,
और भला वह हमसे मांगती है क्या ?
यह चंचल नदियां इसका लहराता आँचल ,
है काले केश यह काली घटाओं सा बादल ,
हरे -भरे वृक्ष ,पेड़ -पौधे और वनस्पतियां ,
हरियाली सी साड़ी में लगती है क्या कमाल।
इसका रूप -श्रृंगार हमारी खुशहाली नहीं है क्या? …
है ताज इसका यह हिमालय पर्वत ,
उसकी शक्ति-हिम्मत शेष सभी पर्वत ,
अक्षुण रहे यह तठस्थता व् मजबूती ,
क्योंकि इसका गर्व है यह सभी पर्वत।
इसका यह गौरव हमारी सुरक्षा नहीं है क्या ? ----
यह रंगीन बदलते हुए मौसम ,
शीत ,वसंत ,ग्रीष्म औ सावन ,
हमारे जीवन सा परिवर्तन शील यह ,
और सुख-दुःख जैसे रात- दिन।
जिनसे मिलता है नित कोई पैगाम नया , क्या ? ---
इस प्रकृति पर ही यदि निर्भरता है हमारी ,
सच मानो तो यही माता भी है हमारी ,
हमारे अस्तित्व की परिभाषा अपूर्ण है इसके बिना ,
यही जीवनदायिनी व यही मुक्तिदायिनी है हमारी।
अपने ही मूल से नहीं हो रहे हम अनजान क्या ?…
हमें समझाना ही होगा ,अब तक जो ना समझ पाये ,
हमारी माता की भाषा/अभिलाषा को क्यों न समझ पाये ,
दिया ही दिया उसने अब तक अपना सर्वस्व ,कभी लिया नहीं ,
इसके एहसानों , उपकारों का मोल क्यों ना चूका पाये।
आधुनिकता/ उद्योगीकरण ने हमें कृतघ्न नहीं बना दिया क्या ?…
क्यों हो गए हम लालची ,कृतघ्न व् कठोर ,
क्यों मात्र दे रहे निज सुख -ऐश्वर्य पर ज़ोर ,
एक हमारा ही नहीं ,उसकी और भी संतानो का है उसपर हक़ ,
ज़रा देखें तो अपना गिरेबान और करें कुछ गौर।
आखिर हम इंसान है दानव तो नहीं ,
सर्वसमर्थ है बदल नहीं सकते अपनी जीवन-शैली को क्या ?…
तो आओ मिलकर हम यह कस्में उठायें ,
अपनी प्रकृति -माँ के निमित रस्में बनायें ,
करें प्रकृति की रक्षा व् उसकी संभाल ,
पर्यावरण / पशु -पक्षियों की देखभाल ,
ताकि वसुंधरा खुशहाली के नग्में गाये।
इस तरह एक स्वर्ग ज़मीं पर उतार नहीं सकते क्या ?…
बुधवार, 4 जून 2014
DOHE BHAKTI KE
दोहे
१ , बांह मेरी गहि के हे मेरे सतगुरु ,कीजै भवसागर से पार,
करूँ मैं कोटि-कोटि वंदना दीजो मम निज स्नेह -दुलार।
२, देखा जबसे सुन्दर रूप मेरे प्रभु का , जगत लगे मुझे बड़ा कुरूप ,
इनके स्नेह की शीतल छाया मिले तो क्यों सताए कष्टों की धुप।
३, प्रभु यह जग है मिथ्या ,एक तुम ही हो बस शाश्वत ,
तुम्हारी महिमा मानते आये वेद-पुराण व भागवत।
४, प्रभु ! यह जग है चार दिन की चांदनी ,फिर अँधेरी रात ,
हुआ मेरे जीवन में उजियारा जबसे हुई तुमसे मुलाक़ात।
५, हो जिसमें स्वारथ व् चतुराई ,सच्ची होगी भला कैसे जग की प्रीति ?,
भोले -भाले से मेरे सतगुरु की सारे जग से सच्ची व् शुद्ध है प्रीति।
६ , माया का फैलाकर फंदा यह जग करे मन को सदा भ्रमित ,
सतगुरु न होते तो कौन देता हम नादानों को सहारा नित-नित।
७, हम कौन हैं ? क्या है ? और क्या है हमारी डगर ? ,
है वही सर्व -ज्ञाता ,हर हालात पर उनकी है नज़र ,
अपना जीवन ,मन -प्राण तुम्हें सौंप कर हे प्रभु ! ,
हो गए हम आनंदित ,मिट गयी साडी चिंता -फ़िक्र।
८ , मुझे तो सरोकार है बस अपने सतगुरु से ,
इस जगत से मुझे भला क्या है लेना-देना ,
वह है हमराज़ ,हमदर्द ,परम मित्र मेरे ,
झूठे ,स्वार्थी रिश्तों का मुझे क्या करना।
करूँ मैं कोटि-कोटि वंदना दीजो मम निज स्नेह -दुलार।
२, देखा जबसे सुन्दर रूप मेरे प्रभु का , जगत लगे मुझे बड़ा कुरूप ,
इनके स्नेह की शीतल छाया मिले तो क्यों सताए कष्टों की धुप।
३, प्रभु यह जग है मिथ्या ,एक तुम ही हो बस शाश्वत ,
तुम्हारी महिमा मानते आये वेद-पुराण व भागवत।
४, प्रभु ! यह जग है चार दिन की चांदनी ,फिर अँधेरी रात ,
हुआ मेरे जीवन में उजियारा जबसे हुई तुमसे मुलाक़ात।
५, हो जिसमें स्वारथ व् चतुराई ,सच्ची होगी भला कैसे जग की प्रीति ?,
भोले -भाले से मेरे सतगुरु की सारे जग से सच्ची व् शुद्ध है प्रीति।
६ , माया का फैलाकर फंदा यह जग करे मन को सदा भ्रमित ,
सतगुरु न होते तो कौन देता हम नादानों को सहारा नित-नित।
७, हम कौन हैं ? क्या है ? और क्या है हमारी डगर ? ,
है वही सर्व -ज्ञाता ,हर हालात पर उनकी है नज़र ,
अपना जीवन ,मन -प्राण तुम्हें सौंप कर हे प्रभु ! ,
हो गए हम आनंदित ,मिट गयी साडी चिंता -फ़िक्र।
८ , मुझे तो सरोकार है बस अपने सतगुरु से ,
इस जगत से मुझे भला क्या है लेना-देना ,
वह है हमराज़ ,हमदर्द ,परम मित्र मेरे ,
झूठे ,स्वार्थी रिश्तों का मुझे क्या करना।
मंगलवार, 6 मई 2014
duniya-e- aatishkhana (gazaL)
दुनिया -ऐ- आतिशखाना ( ग़ज़ल)
गुज़रे में ज़िन्दगी के हमने यही है जाना ,
दुनिया कम नहीं किसी आतिश्खाने से।
शोले इतने कि जिसका कोइ शुमार नहीं,
अरमान जल रहे हैं किस कदर परवाने से।
शमाएँ पुकारती है उधर कर- कर के इशारे ,
उधर साक़ी कि सदायें आएं मयखाने से।
हफ़िज़े में छायी है बेइंतहा कशमकश ,
दिल भी बहलता नहीं लाख बहलाने से।
नागुज़िर है जग़ज़्ज़ुल के वाज़दां से दामन छुड़ लुं ,
और दूर हो जाऊं इनके लपटों के तहखाने से।
तमन्ना है तलाश -ऐ-रहबर कि औ खुदा की ,
जो दिखा दे मुझे ज्यादा ऐ- तलब के नज़राने से।
दुनिया है वजहे-सद -खराबी आख़िरश यह माना,
फंसाती आई हैअहल -ऐ -हवस को ज़माने से।
लाख काविशें करे यह आतिश्खाने कि चिंगारियाँ ,
होंसले ना मिट सकेँगे इनके लाख मिटाने से।
गुज़रे में ज़िन्दगी के हमने यही है जाना ,
दुनिया कम नहीं किसी आतिश्खाने से।
शोले इतने कि जिसका कोइ शुमार नहीं,
अरमान जल रहे हैं किस कदर परवाने से।
शमाएँ पुकारती है उधर कर- कर के इशारे ,
उधर साक़ी कि सदायें आएं मयखाने से।
हफ़िज़े में छायी है बेइंतहा कशमकश ,
दिल भी बहलता नहीं लाख बहलाने से।
नागुज़िर है जग़ज़्ज़ुल के वाज़दां से दामन छुड़ लुं ,
और दूर हो जाऊं इनके लपटों के तहखाने से।
तमन्ना है तलाश -ऐ-रहबर कि औ खुदा की ,
जो दिखा दे मुझे ज्यादा ऐ- तलब के नज़राने से।
दुनिया है वजहे-सद -खराबी आख़िरश यह माना,
फंसाती आई हैअहल -ऐ -हवस को ज़माने से।
लाख काविशें करे यह आतिश्खाने कि चिंगारियाँ ,
होंसले ना मिट सकेँगे इनके लाख मिटाने से।
milan (gazal)
मिलन (ग़ज़ल )

निभा चुके तुझसे ऐ ज़िन्दग़ी! ,
अब मौत से निकाह हमारा होगा।
सजेगी रूह मेरी तब दुल्हन बनकर ,
पैरहन चांदनी सा तब हमारे होगा।
कहार उठायेंगे जब जनाज़ा हमारा ,
डोली से कम नहीं वो नज़ारा होगा।
तुम भी देखोगे वोह अनोखा मिलन ,
तुम्हारे अश्क़ों से भीगा दामन हमारा होगा।
चले जायेंगे हम गुज़रे हुए वक़्त कि मानिंद ,
फिर इस चमन में लौटना ना हमारा होगा।

निभा चुके तुझसे ऐ ज़िन्दग़ी! ,
अब मौत से निकाह हमारा होगा।
सजेगी रूह मेरी तब दुल्हन बनकर ,
पैरहन चांदनी सा तब हमारे होगा।
कहार उठायेंगे जब जनाज़ा हमारा ,
डोली से कम नहीं वो नज़ारा होगा।
तुम भी देखोगे वोह अनोखा मिलन ,
तुम्हारे अश्क़ों से भीगा दामन हमारा होगा।
चले जायेंगे हम गुज़रे हुए वक़्त कि मानिंद ,
फिर इस चमन में लौटना ना हमारा होगा।
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