मुक्तक
१, प्रभु ! हम हैं पापी ,तुम हो बख्शनहार ,
हम हैं मिटटी के पुतले तुम हो प्राणाधार ,
तुम्हारी दया-करुणा की कोई सीमा नहीं,
तुम हो सर्वशक्तिमान पारब्रह्म निराकार।
२, सतगुरु ! तेरी महिमा कही न जाये ,
वेद ,पुराण ,ग्रन्थ सब लिख-लिख हारे ,
तुम ही हो महान इस सारे जगत में ,
हम दीनन के तुम ही हो रखवारे।
३, समस्त धरती को कागज़ किया,
सातों सागरों की स्याही बनायीं ,
सभी वृक्षों की कलम तैयार की ,
तब भी प्रभु की महिमा कहीं न गयी।
४, प्रभु ! तुम हो चन्दन हम हैं पानी ,
हम मिटटी के पुतले ,तुम हमारी वाणी ,
तुम हो ज्ञान का सागर , हम मूरख प्राणी ,
हम में तुम ,औ तुम में हम है हे प्रभु! ,
मिट जायेगा एक दिन सारा अंतर ,
यह है संत-महात्माओं की सच्ची वाणी।
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