अमर गायक स्व. मुहम्मद रफ़ी साहब की पुण्य तिथि पर विशेष
रफ़ी की याद में। .......... ( कविता)
क्या थी वह बरसात की रात ,
वह तो थी क़यामत की रात।
ज़िंदगी और मौत के उस जंग में ,
क्यों कज़ा की हुई आखिर जीत?
टूट गयी सांसों की क्यों डोरी ?,
खामोश हुई आवाज़ ,सो गए गीत।
दर्द का सागर लहरा उठा यूँ के ,
अश्क़ों से भीग गयी बेजान-जीस्त।
बुझे हुए अरमानो का कारवां चला ,
मुसाफिर की करवाने खाक से मुलाक़ात।
एक सफर ख़त्म हुआ और दूसरा शुरू ,
इस मंज़िल पर आकर बढ़ गई औक़ात।
इंसा था वह उम्दा ,औ फनकार ठ अज़ीम ,
कांटे हो या फूल ,सभी थे उसके मीत।
देकर तबस्सुम अपना, ज़हर खुद पीता था ,
इस तरह ज़िंदगी को निभाने की सीखा गया रीत।
ज़माने की हवा छू भी ना पायी उसे ,
मासूम सा ,सलोना सा उस पर थी खुद की इनायत।
यह है उसकी यादों का ३४ वां सावन ,
मगर बदले नहीं हम औ हमारे हालात।
आज भी है वह यादों में ,हमारे दिल के क़रीब ,
कभी न भुला सकेंगे ,जब तक है यह क़ायनात।
ज़िंदगी और मौत के उस जंग में ,
क्यों कज़ा की हुई आखिर जीत?
टूट गयी सांसों की क्यों डोरी ?,
खामोश हुई आवाज़ ,सो गए गीत।
दर्द का सागर लहरा उठा यूँ के ,
अश्क़ों से भीग गयी बेजान-जीस्त।
बुझे हुए अरमानो का कारवां चला ,
मुसाफिर की करवाने खाक से मुलाक़ात।
एक सफर ख़त्म हुआ और दूसरा शुरू ,
इस मंज़िल पर आकर बढ़ गई औक़ात।
इंसा था वह उम्दा ,औ फनकार ठ अज़ीम ,
कांटे हो या फूल ,सभी थे उसके मीत।
देकर तबस्सुम अपना, ज़हर खुद पीता था ,
इस तरह ज़िंदगी को निभाने की सीखा गया रीत।
ज़माने की हवा छू भी ना पायी उसे ,
मासूम सा ,सलोना सा उस पर थी खुद की इनायत।
यह है उसकी यादों का ३४ वां सावन ,
मगर बदले नहीं हम औ हमारे हालात।
आज भी है वह यादों में ,हमारे दिल के क़रीब ,
कभी न भुला सकेंगे ,जब तक है यह क़ायनात।
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