विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
यह प्रकृति कुछ कहना चाहती है .... (कविता)
यह प्रकृति कुछ कहना चाहती है ,
अपने दिल का भेद खोलना चाहती है ,
भेजती रही है हवाओं द्वारा अपना संदेशा।
ज़रा सुनो तो ! जो वह कहना चाहती है।
उसका अरमान ,उसकी चाहत है क्या ?
सिवा आदर के वो कुछ चाहती है क्या ?
बस थोड़ा सा प्यार ,थोड़ा सा ख्याल ,
यही तो मात्र मांग है इसकी ,
और भला वह हमसे मांगती है क्या ?
यह चंचल नदियां इसका लहराता आँचल ,
है काले केश यह काली घटाओं सा बादल ,
हरे -भरे वृक्ष ,पेड़ -पौधे और वनस्पतियां ,
हरियाली सी साड़ी में लगती है क्या कमाल।
इसका रूप -श्रृंगार हमारी खुशहाली नहीं है क्या? …
है ताज इसका यह हिमालय पर्वत ,
उसकी शक्ति-हिम्मत शेष सभी पर्वत ,
अक्षुण रहे यह तठस्थता व् मजबूती ,
क्योंकि इसका गर्व है यह सभी पर्वत।
इसका यह गौरव हमारी सुरक्षा नहीं है क्या ? ----
यह रंगीन बदलते हुए मौसम ,
शीत ,वसंत ,ग्रीष्म औ सावन ,
हमारे जीवन सा परिवर्तन शील यह ,
और सुख-दुःख जैसे रात- दिन।
जिनसे मिलता है नित कोई पैगाम नया , क्या ? ---
इस प्रकृति पर ही यदि निर्भरता है हमारी ,
सच मानो तो यही माता भी है हमारी ,
हमारे अस्तित्व की परिभाषा अपूर्ण है इसके बिना ,
यही जीवनदायिनी व यही मुक्तिदायिनी है हमारी।
अपने ही मूल से नहीं हो रहे हम अनजान क्या ?…
हमें समझाना ही होगा ,अब तक जो ना समझ पाये ,
हमारी माता की भाषा/अभिलाषा को क्यों न समझ पाये ,
दिया ही दिया उसने अब तक अपना सर्वस्व ,कभी लिया नहीं ,
इसके एहसानों , उपकारों का मोल क्यों ना चूका पाये।
आधुनिकता/ उद्योगीकरण ने हमें कृतघ्न नहीं बना दिया क्या ?…
क्यों हो गए हम लालची ,कृतघ्न व् कठोर ,
क्यों मात्र दे रहे निज सुख -ऐश्वर्य पर ज़ोर ,
एक हमारा ही नहीं ,उसकी और भी संतानो का है उसपर हक़ ,
ज़रा देखें तो अपना गिरेबान और करें कुछ गौर।
आखिर हम इंसान है दानव तो नहीं ,
सर्वसमर्थ है बदल नहीं सकते अपनी जीवन-शैली को क्या ?…
तो आओ मिलकर हम यह कस्में उठायें ,
अपनी प्रकृति -माँ के निमित रस्में बनायें ,
करें प्रकृति की रक्षा व् उसकी संभाल ,
पर्यावरण / पशु -पक्षियों की देखभाल ,
ताकि वसुंधरा खुशहाली के नग्में गाये।
इस तरह एक स्वर्ग ज़मीं पर उतार नहीं सकते क्या ?…
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