सुनो नारी ! ( कविता)
कहाँ नहीं है शैतान ,
किसी -किस से बचोगी तुम ?
घर ,समाज या देश ,
कहीं भी महफूज़ नहीं हो तुम।
भरोसे कि नहीं दुनिया ,
कोई रिश्ता है भरोसे वाला?
सज्जन ,सुशील ,सुशिक्षित ,
दिखने वाला भी दुष्ट हो सकता है।
चेहरा हो सकता है जाना-पहचाना ,
मगर फिर भी अजनबी हो सकता है।
अपना -सा जितना भी लगे ,
पल में पराया हो सकता है।
क्या किसी को अपना समझ सकती हो तुम?
जिसे है तुमने अपने खून से सींचा ,
नज़रें तो उसकी भी बदल सकती हैं।
रिश्तों का वास्ता क्या दे सकती हो तुम ?
आज के मानव में,
दिल नहीं,
ज़मीर नहीं ,
दीन -ईमान नहीं।
जज़बात नहीं तो
दर्द भी कहाँ होगा !
करुणा नहीं,
प्रेम भी कहाँ होगा ?
सही मायने में वोह मानव है ही नहीं।
मानव कि तो उन्होने खाल पहन रखी है ,
असल में वोह खूंखार भेड़िये हैं।
क्या ऐसे निर्दयी पशु के समक्ष ,
अपने अश्क़ बहाओगी तुम?
तुम्हारी आहों का, तुम्हारी विनती का ,
इनपर कोई असर नहीं होगा।
मत करो इनसे याचना।
तुम्हारे आक्रोश ,शिकायत ,
से भी कुछ नहीं होगा।
कौन करेगा तुम्हारी रक्षा?
यह पुलिस व कानून -व्यवस्था ,
या यह सियासतदार !
यह भी तो मर्द ही है न !
क्या यह देंगे तुन्हें इन्साफ ?
तुम्हें खुद ही अपने-आप को पहचानना होगा।
अपनी और अपनी कौम कि रक्षा भी ,
तुम्हें खुद ही करनी होगी।
तुम्हें अपने अंदर कि शक्ति को जगाना होगा।
हे नारी ! सुनो !
तुम्हें अब दुर्गा बनना होगा।
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