उफ़ ! यह बिजली के नखरे (हास्य-व्यंग्य कविता)
पल भर के लिए ,
यह जब चली जाये।
यूँ लगे तन से ,
यूँ जान चली जाये।
चिराग सारे उम्मीद के ,
जो बुझा जाये ,
घर में तो क्या ,
ज़िंदगी में भी अँधेरा छा जाये।
गुलिस्तां से जैसे बहारें ,
रूठ जाया करे ,
यह भी हमसे यूँ ही
रूठ जाया करे।
क्यों रूठी है , किस बात पर रूठी है ,
हमारी तो कुछ समझ में ना आये।
इंतज़ार हम क्या करते है ,
यूँ समझो अँधेरे में तीर छोड़ते हैं।
इसी दौरान कभी खुदा से दुआ ,
तो कभी इसे मनाया करते हैं।
दीवानगी में हम दोस्तों !
जाने क्या-क्या करते हैं।
तरह -तरह के बहाने इसके
मज़बूरी में सहते हैं।
क्या करें ,इसके चले जाने से
हमारे सारे काम जाते हैं।
यूँ लगता है कभी-कभी ,
हम हैं चाभी के खिलौने ,
बस इसके चलाने से चलते -रुकते हैं।
हमारी ज़िंदगी है यह आखिरकार ,
हमारे home -appliance कि भी जान .
इसी में है अटकी।
इतनी दीवानगी ! उफ़!
यूँ लगे जैसे यह कोई मेहबूबा हो कोई ,
जिसकी आदत है बार-बार रूठके जाने की।
और रूठ के कभी ना आने की।
या कभी यूँ लगे बड़ी देर हो गयी ,
अभी तक ना आयी ,
''कही दिल तो ना लगा बैठी'' ,
या कहीं अपनी आँखें चार कर बैठी है।
कुछ हमारा ख्याल किया होता ,
तो क्या हमें इससे कोई शिकायत होती ?
ख़ुशी के चंद लम्हें भी मिल जाते तो ,
तो ''मैडम ! '' बड़ी इनायत होती।
यह हमारी दीवानगी कि हद है ,
या इश्क़ कि इंतेहा कह लीजिये।
लिख डाला हमने यूँ ही यह '' प्रेम-काव्य '',
कृपया इसे पढ़ लीजिये।
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