आह्वान (कविता)
जिन्हें है हिन्द पर नाज़ ,
जिन्हें हैं इसकी फ़िक्र ,
और जो करते हैं इससे बेइंतेहा मुहोबत।
सुनले वोह मेरा आह्वान !
कि देश के व् अपने बीच कि हर दिवार को गिरा दें।
जातिवाद ,क्षेत्रवाद ,भाषावाद ,
और धर्म कि तमाम ऊँची -ऊँची
दीवारों को तोड़कर ,उन्हें फांदकर।
उंच -नीच , आमिर-गरीब , लिंग-भेद ,
रंग -भेद कि गहरी खायी को पाट कर।
अपने दुःख -सुख व् निजी स्वार्थ से उठकर।
आगे आयें और सुने ,
अपने कान लगाकर ,
अपने देश कि धड़कनो को ,
इसकी नब्ज़ को टटोलें ,
जीवित है अभी ,
कुछ श्वास बाकि है अभी ,
अभी कर सकते है हैम इसे पुनर्जीवित।
अपने बलिदान से।
अपनी देशभक्ति और
अपनी एकता के
शंख नाद से लौटा सकते है इसकी चेतना।
इसके निष्प्राण होते तन पर
जान फूंक सकते हैं हम .
हमारा लहू ला सकता है
इसकी धमनियों में संचार।
इसके बुझी हुई आँखों के चिरागों को ,
हमारा आत्मविश्वास ही
प्रज्वलित कर सकता है
हमारा जोश ,हमारी उमंग से ही तो
यह पुनः उठकर खड़ा हो सकता है।
फिर देरी कि बात कि ,और क्यों ?
यह किकर्तव्यविमूढ़ सा मन क्यों हो ?
आओ ! हम सब मिल-जुल कर ,
अपनी जान से भी प्यारे हिन्द -देश को ,
विकास के सबसे ऊँचे शिखर पर ले जाएँ।
शांति ,भाईचारे , सर्व -धर्म -सम्मान ,
कि भावना जन-जन में जगाएं।
खून चूसने वाली ज़हरीली दीमकों ,खटमलों
से निजात दिलवाएं।
हमारा कुछ फ़र्ज़ है इसके प्रति ,
यह हम भी याद रखें ,
और औरों को भी याद दिलवाएं।
यह हमारा गौरव है ,
हमारी आन-बाण-शान है ,
फिर क्यों ना इस पर अपना
तन-मन-धन कुर्बान करें।
बड़ी फ़िक्र है गर हमें अपने हिन्द की
तो बेहतर है इसके लिए कुछ करें।
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