ना ही इस संसार में है ,
कोई मेरा ठिकाना.
क्या कहा तुमने ?
मैं मनुष्यों के दिल में रहूँ!
दिल है कहाँ !
है क्या !
पत्थर है यह तो .
इस पत्थर से तो भावना भी रुष्ट
हो कर चली गयी है .
जाने कहाँ गयी होगी!
अब मैं यहाँ रहूँ !,
इस खंडहर में .
नहीं! बिलकुल नहीं!
जहाँ मेरी भावना होगी ,
वही तो मेरा आवास होगा.
भावना -विहीन दिल
मेरे लिए खंडहर ही तो हुआ.
मैं प्रकृति से पूछता हूँ .
शायद उसे पता हो भावना का ,
या हमारे लिए आवास.
मगर यह क्या !,
इसे भी दानवों ने नष्ट कर दिया.
अब यह अवशेष क्या बताएँगे ,
मेरी भावना का पता.
और आवास ! ओह!
मैं पशु- पक्षी औ जीव-जन्तुयों
की और देखता हूँ .
भावना उनकी आँखोंसे बह रही है ,
आंसू बनकर .
मुझे देखा तो मेरे साथ हो ली.
अब हमने सोचा ,चलो !
मंदिर की और चलते हैं ,
इश्वर से करने गुहार .
हा ! प्रभु हा !
हमारी पीड़ा ,दुःख ,दर्द मेँ
अंधियारे बादल .
की इश्वर भी नज़र ना आया.
बस उसकी मूरत है ,
मगर वोह कहाँ है ?
यह तो व्यवसाय का अड्डा है
धर्म ,संस्कृति , समाज ,नैतिकता
सब कुछ बिक रहा है .
हम भी बिक जायेंगे .
इस डर से हम वहां से चले आये.
अब जहाँ इश्वर नहीं
वहां भावना नहीं ,
वहां मैं भी नहीं.
मैं यहाँ भी नहीं रह सकता.
अब ! अब कहाँ जाएँ ?
कला ! कला तो पहले ही दूषित हो चुकी है
वासना ने कर दिया इसे कलुषित.
हे प्रभु ! हे मेरे इश्वर !
अब मैं कहाँ जायुं ?
यह भावना भी रह सकती नहीं जहाँ .
इस पुरे संसार में कहीं अपना ठिकाना
शेष नहीं रहा.
अब मैं कहाँ रहूँ?
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