- अश्कों ने जब छेड़ी ग़ज़ल
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१, तस्वीर
,आसमान को जब छुना चाहा ,
तो पेरों में ज़ंजीर रही .
फूलों सा जब मुस्काना चाहा ,
तो होठों पर आहों की तहरीर रही .
लहरों की तरह बहना चाहा ,
तो पथ्थरों सी तकदीर रही .
इस जिंदगी ने दिखाए मुझे ऐसे नज़ारे ,
की मैं वक़्त के हाथों से मिटी तस्वीर रही .
२, हसरत
,किस आरजू को पुकारूँ,किस हसरत को सदा दूँ,
रूह्फोश हो गयी हैं वोह चिलमनो में जैसे .
किस ख्वाब को पालूं ,किस उम्मीद को जिंदा रखूं ,
जुदा हो गए है मेरे महबूब के जैसे .
ख़ुशी का इंतज़ार करूँ या ग़मों का एहतराम करूँ,
मेरे पहलु में तो तुम्ही हो गम-ऐ-जाना जैसे .
किस दामन को पकडूँ की बहुत तूफान है आये हुए,
कोई आता नहीं नज़र,मैं बिलकुल तनहा हूँ जैसे .
लो आ ही गया ज़लज़ला ,अब कैसे बचे जिंदगी !
कज़ा है सामने जाहे-नसीब कोई कातिल सनम हो तो ऐसे.
३, साया
हुकुमत है मुझ पर गुजिश्तान वक़्त की परछाईयों की ,
हर एक साया यादों का मुझे तड़पाता है.
रुलाता है जार- जार वोह मुझे तब तक ,
जब तक खून से लबरेज़ अश्क टपकता है.
तन्हाई में रहूँ तो जलता है जी ,
मगर महफ़िल में भी मेरा दम घुटता है.
सीने में होती है जकडन सी क्यों !,
क्यों आहों से गला यह सूखता है.
हर तमन्ना मिट गयी ,हर ख़ुशी छीन गयी,
टुटा ख्वाब ऐसे जैसे आइना कोई टूटता है .
वक़्त का कारवां छुटा तो छुटा ऐ अनु !
अब यूँ लगे है जैसे दमन जिंदगी का भी छूटता है .
४, होंसला
है कोई ज़माने में हमसे ग़मज़दा कोई ,
जी नहीं! यकीं ना हो तो ढूढ़ के देख लो .
मुफलिसी की मिसालें तो बहुत सुनी होगी ,
बदनसीबी की मिसाल हम है ,सुन लो,
देखा है ऐसा जिगर जो इतना दर्द बर्दाश्त करे,
रफीकों से भी जो छलनी हुआ है सीना देख लो ,
है देखी कभी ऐसी आँखें जो दरिया हो अश्कों का,
शायेद ही कभी यह सुखी हों यह आखें देख लो,
हर ज़ख्म सर-आँखों पर लिया ,गुलों की मानिद,
क्या रकीबों से ,क्या खुदा से , यह होंसला देख लो.
बचती कहाँ ऐसी जिन्दगिया , मिटा देता है ज़ालिम ज़माना,
हम अभी भी जिंदा है ,हैरत की बात है ना ! ,देख लो !,
है मुकाबला जिस्त और रूह के दरम्यान ,
कौन होगा फ़ना ,दौरे -कशमकश में ,अंजाम देख लो..
५, ऐ ख़ुशी !
मैं जिंदगी से तेरा पता पूछते कहाँ से कहाँ आ गयी ,
तू तो ना मिली मगर मिल गयी मुझे रुसवाईयां .
तू तो न जाने कहाँ खो गयी बाज़ार-ऐ -दुनियां में,
मैं गरीब ना छु पाई तेरी परछाईयाँ .
दौलत की सहेली बन बसा लिया तुने नया बसेरा ,
रौनत-ऐ-ऐश से मिलकर लेने लगी तू अंगडाईयां .
आसमान छूने की तमन्ना की थी और पाई ज़लालत ,
तेरी चाहत ही की थी ,या की थी मैने नाफर्मानियाँ.
खुदा से कभी तो कभी रफीकों से रहमो-करम की भीख ,
छलनी हो गयी खुद्दारी और उस पर मिली तन्हाईयाँ .
कब कहा मैने की अनु नहीं हैं दीवानी ,
तू रहे शाद ,तुझे क्या ! सारा ज़माना करे मेरी नुक्ताचिनियाँ .
यह खुदपरस्त ,खुदगर्ज़ और कमज़र्फ जहाँ और तू !
नहीं समझ सकते मेरे दर्द की गहराईयां .
६, खेल
जिंदगी है किसकी और इस पर इख्तियार है किसका !
कैसे खवाब और कैसी उन खवाबों की ताबीर ,
काट दिए जायेंगे पर तुम्हारे , जिससे वोह खंजर है किसका !
आग सी लगी हुई है हर कहीं ,और हर दामन में दाग है ,
ऐसी तबाही -ऐ - मंज़र इंसानियत का है किसका!,
शेतानो की सरपरस्ती में है यह दौरे-जूनून ,
मत पूछो हाल यह कुदरत का ,यह आजार है किसका!,
खुद ही खेले वोह खेल हमसे कैसे-कैसे ,और खुद ही बिगड़े भी,
है बिसात जिसकी यह दुनिया आखिर यह सारा खेल है किसका.
७, औकात
इन आँखों ने देखा बहारों को खिज़ा में बदलते,
क्या इन्हें ख्वाब देखने की इज़ाज़त नहीं.
रही जिंदगी ग़ुरबत में और कफस में जान,
इस बेवफा से निजात पाने की हेसियत नहीं
मायेने इसके है क्या ? क्या ज़माना बदल गया यूँ ,
एक झूठ है ,फरेब है यह ,कोई हकीक़त नहीं .
ख्वाब भी ऐसे देखे ,जिसका अंदाज़ था जुदा,
ज़माने से जुदा यह मुकाम ,यह केफ़ियत नहीं .
अपनी खुदपरस्ती ,खुद्खार्ज़ी से गर गुज़र जाये आलम-ऐ-हयात ,
खुदा भी है जब मजबूर ,तो ऐ अनु ,तेरी भी औकात नहीं .
यह खेल है नसीब का या करामात है दौलत की ,
की जिसका जितना दामन हो ,बंटती है खेरात उतनी ही .
८, . ऐ जिंदगी ! ऐ जिंदगी ! चल छुप जाएँ ऐसे अंधेरों में,
जहाँ अपना साया भी ना आये हमें नज़र हम टूटे हुए ,बिखरे हुए ,ना रौंदे जायें किन्हीं क़दमों तले, खुद को संभाल कर ,बटोर कर फूंक डालें इस कदर .
इस कदर की दुनियां को ना मिले कोई अपना निशान, था कोई ऐसा इंसान ,जिस पर थी बद गुमानी पुर असर . तकदीर के मारों का हाल यह ज़माना क्या जाने !,
जो कभी टुटा ही नहीं ,वोह क्या जाने शीशे की कदर. शिकायत क्या कीजे खुदा से और क्या गिला , ठुकराया है उसी ने ,रंज तो बहुत है मगर .
भटकते रहे तमाम उम्र ना ही मंजिल कभी मिली , वक़्त की रफ़्तार थी तेज़ और हमारी मुश्किल थी डगर. सयियादों से नहीं हम तो सवालों से घिरे हुए है ऐ अनु !
चल यही सही , मौत से कम तो नहीं है यह मंज़र . ९, एक शिकायत जब से हुई है रुखसत तकदीर मेरे दर से,
कज़ा ने भी जाने क्यों मुझसे मुंह मोड़ लिया. मेरी जिंदगी को आंसुयों के सैलाब में डुबो के, मेरा ख़ुशी का रिश्ता दर्द से जोड़ दिया ,
मुहोबत से कोई वास्ता नहीं हाँ ! नफरत है करीब , मेरे एहसासों को नुक्ताचिनियों के जानिब मोड़ दिया. मेरा तो अपनी खुदी पर ही बस नहीं,
जिसने मेरी हस्ती को ही तोड़ दिया. यह पर्दा नशीं हुस्नयार,जाने क्यों है मुझे बेज़ार , इस गरीब को छोड़ ,दामन गरीब से जोड़ लिया.
१०, मैं कौन हूँ ? दिखती है जो बात इस हस्ती में आपको,
कौन कहेगा ! क्या मैं! मैं कौन हूँ ?
लबो पर तबस्सुम और रुखसार है रोशन,
नज़र आता है क्या ! मैं एक फरेब हूँ.
जिंदा है जीस्त, मगर किसके सहारे,
धड़कन नहीं है ,मैं जिंदा लाश हूँ.
जाने कब आई थी ख़ुशी मेरे दर पे ,याद नहीं!,
मगर अब भी मुन्त्सर हूँ ,मैं शेदाई हूँ .
ज़हन में कशमकश और नादाँ दिल बेचारा,
नाकाम अरमानों और मंसूबों के सबब ,मैं परेशां हूँ.
दे नहीं सकते इलज़ाम मुझे तक दीर की रुसवाई का,
मैने उसे बहुत मनाया ,मगर अब मैं मजबूर हूँ .
हमसे मिलिए , हमें इंसान कहता है कौन !,
ना यह जिंदा ,ना यह मुर्दा ,फिर मैं क्या हूँ ?
११, हालात
हादसों से भरे इस जहाँ में,
जिंदगी हालातों से गुज़रती है.
हर सु है बेचैनी और तड़प,
कब दो घडी सुकून पाती है
पेरों टेल ज़मीं नहीं और आसमान कहाँ!,
बादलों से उतर कर आयेंगे हाथ ,देखती है .
एक हसीं ख्वाब जो बेवफा हो गया,
याद में जिसके रूह मेरी तड़पती है .
जिंदगी है बेमुरव्वत और एक सजा,
लाश की तरह ,जिसे अनु ढोती है .
. १२, दर्द-ऐ -हमराह
दर्द है यह जिंदगी, यह हकीक़त मिट सकती नहीं,
ऐ इंसान ! तेरी तकदीर बदल सकती नहीं .
आंसू है तेरे हमराह ,हर गाम पे छलकेगे ,
मुस्कान से तेरी दोस्ती निभ सकती नहीं .
मजाल क्या है !आहों ने कभी सुकून पाया हो ,
सिलसिला है ताउम्र का ,टूट सकता नहीं.
खुदा जाने यह कैसा दाग दमन में लगवा आये हैं,
सौ जन्मों तक भी छुट सकता नहीं. .
दुनिया चुभती है नश्तर पे नश्तर उस पर आह !,
रूह घायल है और तन बेहाल ,जाँ मगर निकलती नहीं.
१३, मुझे डर लगता है !
ऐ नज़र !
मत दिखा मुझे ख्वाब सुहाने,
इन ख्वाबों से मुझे अब डर लगता है .
ऐ दिल !,
मत धड़क ,सब्र कर दीवाने,
तेरे धड़कने से मेरा दम घुटता है .
मेरे क़दमों !
रुक जायो यहीं ,यह रास्ता हैं अनजाना,
यह कज़ा की और मुड़ता है .
मेरे आँसुयो !
तुम बहते रहो लगातार ,यूँ ही ,
इनसे ज़ख्म रूह का हरा रहता है.
ऐ इश्क !
तू है गर आग का दरिया ,तो क्या !
पार तो कर लूँ मागर रुसवाईयों से डर लगता है .
१४, बुझे हुए चिराग
मेरी आँखें हैं वोह बुझे हुए चिराग,
जिसने ना कभी रोशन होना है.
मेरे ख्वाब है अब बिता हुआ कल ,
जिसने ना कभी लौट के आना है.
मेरा दिल है टुटा सा बिखरा हुआ सा,
जिसमें ना किसीका आशियाँ बनना है.
मेरी जिंदगी है एक बेरंग तस्वीर ,
जिसने ना कभी रंगीन होना है.
मेरे क़दमों ले चलो मुझे अब वहीँ,
जहाँ इस जीस्त ने तमाम होना है.
१५, काश
रूह को तशनगी और दिल को करार मिल जाये,
क्या ही अच्छा हो ,गर हमें मौत आ जाये .
ज़माने की रुसवाईयां और रफीकों के ज़ुल्म सहे ,
ऐ काश दुश्मन को भी हम पर प्यार आ जाये.
तेरी जुल्फों के साये में दर्द है ,घुटन है,
मैं कज़ा से कहती हूँ की दामन वोह बिछा जाये.
जिन तन्हाईयों से निकले है होकर जवान दर्दो -गम,
आज ओढ़ ले कफ़न ,उनके हुस्न पर निखर आजाये.
वोह उठे क़यामत मेरे ज़नाज़े के साथ,
के गुलशन हो जाया वीरान और सहरा में बहार आ जाये.
तेरे अश्कों के सैलाब में डूबा नहीं अब तक वोह,
बुलंद कर आहें इतने की खुदा को खुदाई याद आजाये.
१६, आदत सी हो गयी है
जाता क्यों है उनके कुचे में रुसवा होने यह दीवाना,
शायद इस दिल को चोट खाने की आदत सी हो ई है .
क्या करे !इस जीस्त इ तशनगी मिटती नहीं हसरतों से,
और चाहिए ,और ! मांगने की आदत सी हो गयी है .
रुसवा हो जाये रूह या रूठ जाये खुदा तो क्या,
गुनाहों के दलदल में पड़े रहने की आदत हो गयी है.
अपने अंदर का शेतान कब जाग जाये ,क्या पता,
खंजर हाथ में थामे रहने की आदत हो गयी है.
हम आवाम ! गुम रहते हैं कशमकश -ऐ--सेहरा में ,
और उन्हें सियासत का लुत्फ़ उठाने की आदत हो गयी है.
ना वह बेवफा है ,ना ही उनका वास्ता किसी दुश्मन से ,
मर्ज़-ऐ-एहतियाज के सबब उन्हें गद्दारी की आदत हो गयी है.
17 मुहोबत
ज़माना गुज़र गया तुम्हें याद करते ,
तस्सवुर से तेरी तस्वीर में रंग भरते.
तुम्हारी तलाश में हम भटका किय इस कदर,
जिंदगी में हर मुसाफिर से तेरा पता पूछते.
सजाये थे जब आँखों में सिर्फ तेरे,
तो और किसी को क्यों इनमें जगह देते.?
तस्वीर से तेरी कबतलक बहलाता जी,
इंतज़ार में बैठे रहे तेरी हसरत-ऐ-दीदार की करते.
हमें रफीकों ने लाख समझाया मगर,
हम ठहरा दीवाने,हम कहाँ समझते !
तेरे जूनून-ऐ-इश्क में हमें यह तोहफा मिला,
दुश्मन ही मिले हमें तमन्ना दोस्त की करते.
मेरे अरमान भटकते रहे मुसाफिर की तरह,
जब तुम न मिले इन्हें तो यह क्या करते?
इस जिंदगी की शाम में अब हम हो गए तनहा, - उन चंद लम्हों में भी हम तेरी ही तमन्ना हैं करते.
18 तमन्ना
इस जहाँ में इंसान की इतनी सी है दास्ताँ ,
कोख से कब्र तक जो होती रही बयां.
जन्म लेती हैं इंसान के साथ ही तमन्नाएँ ,
जो छुपकर बैठ जाती हैं आँखों में जाने कहाँ.
जब होती है इब्तदा इन्सान की ज़रूरतों की,
यह तमन्नाएँ भी शामिल होती हैं वहां .
जवान होती हैं दोनों एक ही आँगन में,
ऐशो-इशरत होती हैं इनकी जुबान.
इंसान की जिंदगी में जब होने लगे इनका इख़्तियार ,
इतराती है तमन्नाये जहाँ ,सिसकती है जिंदगी वहां.
टूट कर बिखर जाती है जिंदगी मगर,
तमन्नायों का दामन नहीं छोड़ पाता इंसान.
जिस्म तो खाक हो जाता है कब्र में मगर,
तमन्नायों के पीछे भागती को रूह को चैन कहाँ .
19 अफसाना
ऐ दिले-ऐ-बेकरार ज़रा ठहर जा ,
तेरे धड़कने से बढ़ता है दर्द मेरा.
तू जिसके लिए है धडकता उसे क्या खबर,
वोह क्या सुन सकेगा अफसाना तेरा.
इस पार तू है और उस पर वोह ,
दरम्यान है ज़माना ,क्या मिलेगा किनारा.
तलाश में एक चेहरे की तू देखता है कई चेहरे,
ओ दीवाने! कहीं पढ़ न ले कोई चेहरा तेरा.
दीदार-ऐ-यार की तमन्ना के तू देखता है खवाब,
उस हरजाई ने बसा लिया नया बसेरा.
20, यह अश्कों का दौर कब तलक थमेगा,
अब तो ऐ जिंदगी !तुझसे बाज़ आये हम.
किस्मत ढाती है हर रोज़ नए सितम,
जहाँ भी यह पहुंची बजी हार आये हम.
दुनिया ने हर तरह से तडपाया हमें,
उनके दिए काँटों से दामन भर आये हम.
दिल टूट गया ,आखिर कब तक बचा रहता,
ज़ज्बात मर गए बन पत्थर आये हम.
ताबूत-ऐ-गुमनामी में बंद हुयीं जो हसरतें,
उनके वास्ते अब खुदवाने कब्र आये हम.
तुझसे अब और निभाना मुश्किल है जिंदगी!
तेरी गली छोड़ मौत को पुकार आये हम.
21 जूनून-ऐ-इश्क
टकराके लौट आती है मेरी आवाज़ तेरे दर से,
आखिर क्यों मेरी आँहों में इतना असर नहीं.
खड़े रहते हैं सुभाह-शाम तेरी चौखट पे हम,
मेरे तमन्ना-ऐ-दीदार की तुझे खबर नहीं .
एक जिंदा लाश बना डाला जिंदगी को इस कदर,
देखने को मेरा हाल मुझपर पड़ती तेरी नज़र नहीं.
दीवानगी में तेरी हासिल हुई हमें आवारगी ,
पड़ते न हो पत्थर जहाँ ऐसी कोई डगर नहीं.
मेरे अश्कों में अपना अक्स धुंधला -धुंधला ,
देख सकते थे तुम मगर नहीं !
दिखा दो अपना जलवा-ऐ-रहमत वर्ना,
हटा दूँ मैं सब परदे ,गर तुम हटाते नहीं.
यह जुर्रत मेरी तेरी ही जुदाई का तोहफा है,
सह सकूँ और गम अब इतना मुझमें सब्र नहीं.
दिल में हसरतें इतनी मगर फिर भी नाकामी,
देख सके मेरी बदहाली ,किसी में इतना जिगर नहीं.
22 मिलन
निभा चुके अब हम तुझसे ऐ जिंदगी!,
अब मौत से निकाह हमारा होगा,
सजेगी रूह किस तारा दुल्हन बनकर,
पैरहन चांदनी सा तब हमारा होगा.
चार कहर उठाएंगे जब ज़नाज़ा ,
डोली से कम ना वोह नज़ारा होगा.
तुम भी देखोगे यह अनोखा मिलन हमारा,
तुम्हारे आंसुयों से भीगा दामन हमारा होगा.
चले जायेंगे हम गुज़रे हुए वक़्त की मानिद,
फिर इस चमन में लौटना ना हमारा होगा.
23 ख़त
जाने किसके ख़त का रहता है हमें इंतज़ार ,
कोई नहीं है जबकि हमें लिखने वाला,
दौड़ पड़ते हैं जरा सी आहट पर,
जैसे कोई पैगाम हो आने वाला.
पूछते फिरते हैं हम रफीकों से की ''ख़त आया'' !,
ज़ज्बा होता है उनकी नज़रों में सवाल वाला.
उलझन सी छोड़ देते है वोह ज़हन में हमारे,
सरश्के गम में डूब जाता है दिल मतवाला.
यह हमारी तकदीर का सितम नहीं ,तो क्या है,!
की वोह नहीं है जिसकी तलब ने हमें दीवाना बना डाला.
फिर यही सोचकर ख़त लिखते है और फिर फाड़ डालते हैं,
की कौन है ? शायद कोई नहीं ! इन्हें पढने वाला .
24 दुश्मन-ऐ-जान
खुदा जाने कैसी यह दुनिया बनी,
जो सदा औरत ही औरत किदुश्मन बनी .
जहाँ देखो वहां औरत ही औरत को गिरती,
होकर माँ अपनी बेटी से भीख मंगवाती.
समाज के भेड़ियों के सामने एक औरत ही ,
एक मासूम औरत को तवायफ बनाती .
दहेज़ के लालच में सास बनकर औरत ही ,
अपनी बहु को जिन्दा है जलाती .
पैदा हो जाये गर घर में दुख्तर-ऐ -फातिमा,
तो एक औरत ही मातम मनाती .
सदर-ऐ-महकमा से कुछ सांठ-गांठ कर नौकरी में ,
एक औरत ही दुसरे औरत के पेट पर लात मारती .
औरत ही तो होती है वोह जो सौतन बनकर,
किसी जन्नत-नशीं घर को जहन्नुम बनाती .
25 तलाश
अब नहीं है वोह बात जो कभ थी,
अब आ गयी है जिंदगी में रफ़्तार .
रुक जाना तो जैसे पीछे रह जाना ,
नहीं है पलभर का भी इंतज़ार .
सभी हो रहे हैं अपनी धुन में मस्त,
यह कैसा मदहोशी का है असर.
ना कोई ठिकाना है ना मंजिल ,
गर पूछो तो कर देते हैं इनकार .
कहेंगे भी क्या !इन्हें तो खुद पता नहीं,
मगर हो रहे हैं बड़े बेकरार .
हर जिंदगी है किसी ना किसी तलाश में,
जिसकी खातिर करते हैं खुदा से तकरार .
बहुत परेशां होकर सोचती है अनु,
क्या दौलत के जूनून में इंसान हुआ है गिरफ्तार .?
26 दास्ताँ-ऐ-दरख़्त
कल था इसकी शाखों पर परिदों का शोर,
आज उनका घोंसला सुना हो गया.
खुशियों सी हरियाली और फूलों से जज़्बात,
फिजा का वोह रंग अब खिज़ा में बदल गया.
देता था जो पैगाम जहाँवालों को अमन का ,
आगाज़ वोह उल्फत का नफरत में बदल गया.
निराली थी जिसकी शान सारे गुलिस्तान में,
आज उसी के ज़बीं पर बदनुमा दाग रह गया.
हर आते-जाते मुसाफिर को साया देने वाला,
खुद देखो ! अब सेहरा में खो गया.
कल हँसता था वोह जिस वादे-सबा से हिल-मिल,
अब उसका भी इधर रुख ना रह गया .
उम्र भर अब लब पर आह और अश्क ,
बस यही उसके जीने का सबब रह गया.
27 दर्द-ऐ-शौक
अश्कों में जो ना डूबी हो जिंदगी,
उस जिंदगी का फिर मज़ा क्या है.!
दर्द बनके न उमड़े जो आँखों से ,
उस जज्बात की एहमियत क्या है.!
तन्हाई ना जिसको कर हो ,
वोह फिर शायर क्या है !.
लब जब भी मुस्काएं एक आह लिए,
आहो-ज़र्द चेहरा सबसे हसीं चेहरा है.
जाएँ जब जहाँ से तो कुछ तोसाथ हो,
ग़मों के सिवा और सौगात क्या है !
28 कफ़न तयार है
कौन देखता है और किसे खबर है ,
कोई सी रहा है अपने लिए कफ़न .
जिंदगी को तबाह ,बर्बाद कर,
अरमानो का कर दिया खून .
हज़ार सितम सहने के बाद
तब कहीं आया यह रंग.
ना ऐशो-इशरत ,ना इज्ज़त ,
उसने कमाया २ गज कफ़न.
रूठी तकदीर ना मानी और
ना ही हो सके जज़्बात बयां.
अब तक तो तन-मन घायल थे,
रूह पर लगी चोट तो कांप उठा इंसा .
आखिरश खुदा से नाराज़ होकर बोला,
मुझे दे दो बस दो गज ज़मीं ,
मुझे नहीं चाहिए तेरा जहाँ .
29 अब कहाँ वोह प्यार !
अब कहाँ वोह प्यार और वोह बातें प्यार की.,
अब मुझे सब ख्वाब सा लगता है.
गायें होंगे कभी किसी ने गीत प्यार के,
मगर अब यहाँ विराना बस्ता है.
थी कभी बहारें मेरी जिंदगी में ,
अब तो हर सु खिज़ा का डेरा लगता है.
मेरे आसमान, मेरी हवाएं और मेरे चन-सितारे,
कल थे खुशनुमा आज उनमें दाग दीखता है.
होता होगा रुतबा मेरा इस जहा में बुलंद ,
अब तो मेरा किरदार नाचीज़ लगता है.
कभी पीता था मैं मुसर्रतों के जाम,
अब मुझे सरश्के गम पीना पड़ता है.
रफ्ता-रफ्ता ज्यों मेरा ज़ख्म है गहरा होता ,
मेरा हर क़दम जानिब-ऐ-कज़ा बढता जाता है.
30 टूटे हुए ख्वाब
अपने हर ख्वाब को टूटते हुए मैने देखा है,
हर चेहरे के पीछे छुपी हकीक़त को देखा है .
गुनाह चाहे किसी ने भी क्यों ना किये हों ,
मगर सर सिर्फ अपना ही झुकता है.
जिससे भी की उम्मीद वफ़ा की,प्यार की,
उसे ही दुश्मनी निभाते हुए देखा है.
होते होंगे उनपर खुदा के करम,
मैने तो उसे बस सितम करते देखा है .
उफ़ ! यह बेशुमार गम और जिंदगी ,
अपने ही अरमानो को दफ़न होते मैने देखा है.
इस पर भी रफ़ीक कहते है खुश रहो,
हालातों पे रोने से क्या कोई गम गलत होता है !
31 सफ़र
ना अपनी ख़ुशी से आये ,ना अपनी ख़ुशी से गए,
जिंदगी थी उनकी वही चलाते चले गए.
जितना भी दिया ,खूब दिया उन्होंने,
उनका दिया हम उम्र भर खाते गए.
फिर भी मांगने की आदत थी हमें,
जो भी मांगते रहे ,वोह देते गए.
एहसान-फरामोश हम मिलने पर खुश हुए,
ना मिला तो शिकायत उन्हीने से करने लग गए.
मौत का ना था डर ,ना थी जहनुम की परवाह
शेतान जिस तरह नाचता रहा ,नाचते हम गए.
जिंदगी तो ख़त्म हो गयी ,ना हुए ख़त्म हसरतें,
इस दौर-ऐ-जूनून में ज़रूरतों की इन्तहा नापते गए.
उम्र के दोराहे पर जहाँ खड़ी मिलती है मौत.
अब होता है अफ़सोस ,की काश हम उनको ही उनसे मांगते .
32 सब्र की इन्तेहा
हैवानियत की हदें पर कर चूका है यह जहान,
ऐ खुदा! और कितना पैमाना है तेरे सब्र का.
मौत के साये में हुई हर जीस्त खौफज़दा,
उस पर हुक्मरान करते हैं सौदा कब्र का.
ईमान तो गुम हो गया गुनाहों के अंधेरों में,
ज़मीर है बेबस , बोलबाला है झूठ और कुफ्र का.
खून के रिश्ते या दिलों के रिश्ते क्या हैं ?,
खुदपरस्ती सदका करती हर नज़र का.
हवाएं हैं ज़हरीली और शोला बरसाए आसमाँ भी,
दरिया-सागर का रंग है लहू जिगर का.
हम परेशां हाल करते हैं इंतज़ार कयामत का,
हमें देखना है नज़ारा तबाही-ऐ-मंज़र का.
33 कुछ मत पूछो !
बस ! कुछ मत पूछो की कितना ज़ख्म खाए हुए हैं ,
हम तो जनाब ! हालात के सताए हुए हैं .
यह पेशानी की सिलवटें और यह बेनूर आँखें,
दम तोडती तबस्सुम है औ रंजो-गम से नहाये हुए हैं.
छाई है इस कदर बेखुदी की क्या कहिये !,
दर्द पे अपने हँसते हैं औ लबो पे आहों के साये हैं.
गुरुर की बुलंद आवाजें और हमारी ख़ामोशी,
किसकी होती जीत ! हम भी सब्र किये हुए हैं.
34 कलाम-ऐ-दर्द
कितनी शिद्दत से करते हैं तुमसे प्यार ,
हल-ऐ-दिल अपना बयाँ कर सकते नहीं .
दिल का हर ज़ख्म बन गया नासूर ,
मगर आह भी भर सकते नहीं.
रोते हैं चुपके-चुपके मगर तन्हाई में,
रुसवाई के सबब महफ़िल में रो सकते नहीं.
तुम्हारी यादों का मौसम आता है ,चला जाता है,
तुम्हारी तस्वीर के सिवा हम बेहाल सकते नहीं .
तुमसे मुलाक़ात और दीदार की आरजू में,
करेंगे कयामत तक इंतज़ार ,यूँ तो मर सकते नहीं.
मेरी हस्ती मेरी ना रहिये ज़रा गौर कीजिये,
यह है एक मजार ,जिंदगी इसे बना सकते नहीं.
ग़ज़ल गर छेड़नी है तो दर्द भी चाहिए,
यूँ तो हम शायर बन सकते नहीं.
35 कोई तो है ......
कोई तो है जो लगता है प्यारा,
उसे जानेमन कहने को जी चाहता है.
कोई है जो आँखों से दिल में समाया,
उसे ही महबूब मानने को जी चाहता है.
कोई है जो जिंदगी का हिस्सा बना इस कदर,
की उसी पर जीस्त कुर्बान करने को जी चाहता है.
कोई है जो मेरी रूह में ढल गया,
सांसो की लय पर उसे पुकारने को जी चाहता है.
कोई है जिससे अंजना सा रिश्ता बन गया,
हर जन्म में उसे खुदा से मांगने को जी चाहता है.
कोई तो है जिसके बिना दिल है बेकरार,
अब तो आजाओ ! यह कहने को जी चाहता है.
हाँ ! कोई तो है मगर है कहाँ वोह?
दीदार-ऐ -हसरत लिए उसके पहलु में रहने को जी चाहता है. 36 इकरार
यूँ तो गुजरने को गुज़र जाती है ज़िदगी,
मगर वोह बात कहाँ जो तेरे पहलु में है.
दुनिया की मुहोबत बेशक हो साथ मगर,
मगर सच्चा इकरार तो तेरे साथ है.
दौलत हो ,इज्ज़त हो या बेशकीमत खजाने,
तेरे सामने यह सब फ़िज़ूल ,बेनूर है.
वैसे तो वादे-सबा आती है लेकर महक हर सु,
मगर तेरे दामन की खुशबु की बात ही कुछ और है.
मेरे महबूब ! मुझे रहती है सदा आरजू तेरी,
मेरी हसरतो की दुनिया सिर्फ तू ही तू है. -
37 बुझ गयी शमा परवानो को जलाते हुए,
हाय ! यह कैसे दिन परवानो पे आये!
जो मौत लिखी थी उनके हाथ,
लो अब बे मौत मरने के दिन आये.
सुनी कर गयी वोह अपनी महफ़िल,
और हम अश्कों से नाता जोड़ आये
काबलियत के आईने में बिना मुहँ देखे
यह नकली परवाने कहाँ से आये?
क्या करे उस महफ़िल का जिसमें तू नहीं ,
यही सोचकर हम महफ़िल से उठ आये.
तुम्हारे बगैर क्या है हमारी जिंदगी?
यह सवाल हमारे ज़हन में सौ दफा आये.
हम वोह नहीं जो जुगनुयो के पीछे दौड़े ,
दुनिया -ऐ-महफ़िल छोड़ हम तेरे कुचे में चले आये.
बुधवार, 10 अक्तूबर 2012
hindi gazal sangrah
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