सुनो पुरुष !
तुम्हें संयम में रहना नहीं आता ,नारी के मन मस्तिष्क को टटोलना नहीं आया ,
तुम्हें तो उसका बाहरी रूप ही भाता।
तुम उसपर तो अंकुश लगाते रहे ,
मगर खुद पर अंकुश लगाना नहीं आता ।
प्रेम की लालसा में पहल स्वयं की ,
और मन प्रेम का प्रति फल भी है मांगता ।
मिल गया प्रेम तो होश गंवा बैठे ,
मर्यादा में रहना तुम्हें जैसे नहीं आता।
प्रेम विभोर होकर दीवाने बन गए या गुलाम ,
अपने बाकी रिश्तों का तुम्हें ध्यान नहीं आता ।
और यदि असफल हो गए ठुकराए गए प्रेम में ,
तो कितना आघात तुम्हारे पुरुष अहम को लगता ।
ऐसे में तुम क्या करोगे ?
प्रेम से विरक्त होकर तुलसी बनोगे या गौतम ।
नारी से सारे बंधन तोड़कर ,चुनते फिर अन्य रास्ता ।
या फिर दुश्मन बन जाते ,अपनी ही जान के ,
या नारी को चोट पहुंचाते ,वहशीपन तुम पर सवार होता ।
तुम्हें संयमित में रहना कहां आता है !
अगर संयमित में रहते तो देवता न बन जाते ।
फिर स्वतः ही नारी का विशुद्ध प्रेम और समर्पण
तुम्हें प्राप्त हो जाता ।
संयम और मर्यादा में जो रहने का सुख और आनंद है ,
अन्यत्र कहीं भी नहीं।
जीवन में सच्चे और महान प्रेम को स्थापित करना ,
इससे बड़ा कोई महान कार्य नहीं।