पाप का घड़ा (कविता )
बड़े-बुज़ुर्गों से सुनते आये हैं,महान शास्त्रों में भी लिखा है .
परम ज्ञानियों से सूना है,
धार्मिक फिल्मों में देखा है .
कोई पापी लाख करे चतुराई ,
हेरा-फेरी उसकी कभी कम न आई .
जब भी भरा उसका पाप का घड़ा ,
भगवान् ने एक एक लाठी से चोट लगाई.
मगर आज के दौर को देखते हुए ,
कैसे कर ले हम यकीं .
भर चुके हैं जाने कितने ही पाप के घड़े,
अभी तक किसी का भी घड़ा फूटा नहीं.
सरकार से लेकर चपरासी तक,
और समाज का हर आदमी .
भर चुके हैं इतने अधिक घड़े ,
और पापों को समाने की जगह नहीं.
बलात्कार ,भ्रष्टाचार , काला - बाजारी,
लूट-खसोट ,जालसाजी और हिंसा .
देश को लगे जाने कितने भयानक रोग,
करना मुश्किल है हर पाप की मीमांसा ,
इन समस्त पापों से लबालव भरा हुआ है,
हर एक जन का पाप का घड़ा .
देखो किस तरह समाज में तीक्ष्ण दुर्गन्ध ,
फैला रहा है इन सब के पाप का घड़ा.
साँस लेना दुर्भर हो रहा है किसी सज्जन ,
पुरुष ,बच्चों और नारी के लिए.
सब तरफ दलदल ही दलदल है,
चलना मुश्किल है हमारे लिए.
धरती भी हो रही पाप के बोझ से भारी,
'उसे' मगर खबर ही नहीं.
यह सड़ांध भरी,ज़हरीली दुर्गन्ध ,
यूँ लगता है 'उसके 'दरवाज़े तक पहुंची नहीं.
अब तो हमारे बर्दाश्त की हद हो गयी ,
'' उसमें '' ना जाने कितनी बर्दाश्त बची है.
पाप के घड़े खुद फूट जाने की कगार पर है,
क्या ''उसकी ;''खामोश लाठी टूट चुकी है?
हम तो कर रहे अब भी इंतज़ार ,
बड़ी बेताबी से ,बड़े अरमां से .
कभी तो आये खुदा को इतना जोश ,
की फोड़ डाले सभी पाप के घड़े एक ही चोट से. .
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