अपना आकाश
मै उड़ना चाहती हूँ ,
पंख अपने फैलाकर .
उन्मुक्त आकाश में .
मुझे भी दो एक आकाश,
अपना आकाश !
जो सिर्फ मेरा हो।
खुला-खुला सा ,
यहाँ से वहां और
वहां से यहाँ तक ,
दूर क्षितिज तक जो
फैला हुआ हो .
नीला अम्बर!
जहाँ की हवाएं भी मेरी ,
जो मुझे झोकों से झुला झुलाये।
मेरी ज़ुल्फ़ खुल जाये मेरे बन्धनों की तरह।
और समां जाये मेरा आँचल भी .
मेरी मेरी उड़ान हो एक दम निश्चिन्त .
ना कोई दुविधा,
ना अड़चन,
ना बोझिल रिश्ते ,
और ना ही समाज का कोई बंधन।
निष्कंटक हो मेरा रास्ता।
कोई प्रतिद्वंदी न हो ,
जो मेरा अवरुद्ध कर सके ,
और यदि कोई मिल भी जाये
तो वोह बहुत पीछे रह जाये।
ट्रेन जैसे अपने मार्ग में आने वाले ,
सभी छोटे-मोटे , गाँव ,शहर , खेत -खलिहान को
छोडती हुई अपने गंतव्य पर पहुंचती है .
मुझे भी अपनी मंजिल को पाना है .
मेरी भी तमन्ना है की ,
में भी उड़ते हुए दूर बहुत दूर निकल जायुं .
मेरे पंखों को इतनी ताक़त दो भगवान् !
के यह दुनिया रह जाये पीछे,
और चाहे यह नश्वर काया ,
उम्र के बन्धनों को ढोती हुई ,
यहीं कहीं ज़मीं में दफ़न हो जाये।
मगर मै उड़ना चाहती हूँ .
और उड़ते -उड़ते खोना चाहती हूँ,
सुदूर बादलों में या उससे भी आगे।
जहाँ एक अनंत आकाश है ,
इस आकाश से पार एक और आकाश।
जहाँ तुम रहते हो।
मुझे तुम्ही से तो मिलना है !
तुमसे मिलके अपना हल-ऐ-दिल
सुनना है।
मगर इसके लिए मुझे उड़ना होगा।
और मै उड़ना चाहती हूँ .
मगर पहले तुम मुझे इस पिंजरे से
आज़ाद तो करो!
कोई तो खिड़की खोलो,,
कोई तो दरवाज़ा खोलो .
नहीं खुलता तो तोड़ दो .
इन्हें .
मगर मुझे बंधन मुक्त करो .
और यहाँ से बहार निकल सकूँ ,
और देखूं बाहर की दुनिया ,
और दुनिया से पार दूसरी दुनिया .
जहाँ तुम रहते हो।
मैं तुम्हें पाना चाहती हूँ .
इसीलिए मैं उड़ना चाहती हूँ
और इसी वास्ते मुझे चाहिए एक आकाश .
मेरा अपना आकाश!
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