गुरुवार, 26 मई 2016
दिल -ऐ-साज़ (ग़ज़ल)
74 , दिल –ऐ-साज़
छेड़ा जो किसी ने साज़ कहीं, दिल में
होने लगी झंकार कहीं।
रूह को करार क्या मिल गया, आरजुओं ने अंगडाई ली कहीं।
ख़्वाबों की दुनिया में आई बहार, शुरू हुआ इश्क-ऐ-फ़साना कहीं।
कई सदियों का फासला है, कभी मिटेगा भी या नहीं।
आखिर यह कैसा बंधन है? ता-उम्र
जो टूट सकता नहीं।
‘’अनु’’पूछती है बारहा खुदा से, क्या इश्क
की होती इन्तेहा कहीं?
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