काश !तुम रूबरू होते ... (ग़ज़ल)
यूँ तो हो जाता है दीदार ,तुम्हारी तस्वीर से मगर ,
क्या लुत्फ़ होता गर तुम हमारे रूबरू होते .
एक झलक या महज तुम्हारा साया ही सही ,
कुछ तो होता हासिल , अरमान अधूरे न होते .
वोह मीठी सी निगाह और वो तबस्सुम तुम्हारा ,
हम भी थे जिनके कायल ,हम पर मेहरबान होते .
हसरत तुम्हारे कदम बोसी की थी ,नवाज़ने की ,
तुम्हारी इबादत करते , तुम्हारे कद्रदानो में होते.
तुमसे गुफ्तगू -ऐ- आरजू थी ,बस कुछ लम्हों की ,
मुलाकातों के वोह नगीने हमने संजो कर रखे होते.
तुम्हारी बलाएँ लेने को खड़े होते क़ज़ा के मुकाबिल ,
तो तुम्हारी और उस गुस्ताख के इशारे न होते.
मगर हाय यह कम नसीबी और बेरहम कुदरत ,
आ गयी हमारे दरम्याँ , वर्ना तुम हमारे रूबरू होते.
तो तुम्हारी और उस गुस्ताख के इशारे न होते.
मगर हाय यह कम नसीबी और बेरहम कुदरत ,
आ गयी हमारे दरम्याँ , वर्ना तुम हमारे रूबरू होते.
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