सोमवार, 15 जून 2015

मेरी अंतर्वेदना (KAVITA)


                                                    मेरी   अंतर्वेदना   (कविता)


मेरे   भीतर   कुछ   टूट   रहा   है,
ज्ञात   नहीं ,  क्या ?
स्वयं    को   टटोला   फिर   भी,
मन    के  अंदर  ही   कुछ   घटा  है.
घाव  तो  लगे  थे  कई,  पूरी   तरह   ज़ख़्मी  था,
और  पीड़ित  भी.
यह   तड़पन, यह   बचेनी ,
यह   रोना और  कलपना  .
युहीं  नहीं   था  दिल   का जलना ,
जो  सदा  सीने  में   महसूस  किया.
एक   आग  सी  जलती  रही ,
जिसकी   तपन  सिर्फ  मुझे  सुलगती  रही
 उस  आग  में   जल  गए  थे  मेरे  सारे  सपने,
मेरी   चाहत,  मेरी   अभिलाषाएं,मेरी   इच्छाएं .
और   तो  और   मेरा   स्वाभिमान भी .
मेरा   आत्मविश्वास   मर  गया.
हाँ !   निसंदेह   यह   करुण-  विलाप ,
यह   आहें  इनकी  ही थी.
येही   टूट  रहे  थे  , सुलग  रहे थे, और मर  रहे थे,
मेरे   अंदर   जी  रहे   थे  अब तक  !
 मेरे   यह   परजीवी .
 मगर   मैं   जीवित  हूँ  जाने क्यों?
मैं   खुश  हूँ   या नहीं  हूँ!
मगर   मेरे अंदर  सब कुछ   समाप्त  होने को है
मैं   क्या हूँ ?  बस  एक   जीवित   लाश .
जिसका  अंतिम  संस्कार  होना   बाकी  है,
यह है  मेरी   अंतर्वेदना !

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