सोमवार, 15 जून 2015

मेरी सीमा (कविता)

                                         मेरी सीमा   (कविता)
                                 
सितम से हार कर जब,
लब हो जाते हैं खामोश,
अपने हक केलिए लड़ते हुए'
जब ख़त्म हो जाये जोश,
जब टूट जाती है शेतानो की सीमाएं.
और वह गुरुर में अंधे होजाएं.
ज़ुल्म के नशे में चूर हो जायें,
पागल हो जायें .
तब ! हाँ तब !
लेती है कुदरत अंगड़ाई ,
एक कयामत उभरती है.
सब तरफ बर्बादी देती है दिखाई.
तब यह ख़ामोशी, यह आह,
तूफान बनकर टूटी है,
बरसों से दबी ,कुचली हुई ताक़त,
ज़लज़लों से झूझती है,
साथ जो मिल जाय एक बार समय का,
उसके तो फिर कहने ही क्या!
करवट बदल ले वोह बस एक बार!
तो रावण भी क्या !
उखाड़ सकती है पाप की जड़ को.
एक मजबूर, मजलूम और मासूम की हाय
क्या रंग लती है,
जब कहकशां टूट कर शेतान पर गिरती है .
तो यह जानलो ताक़त वालो ,
ज़ुल्म की भी सीमा होती है.
जब रंग लाती है

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