गम- ऐ -यार ( ग़ज़ल)
अश्क़ों से हो गयी है मुहोबत इस कदर ,
ज़ख्म नया ढूढ़ते है एहतराम के लिए।
दिल का क्या है यह तो टुटा करे है यूँही ,
सर्द आहें हैं चाक दामन सीने के लिए।
इसके बिना तो सूने हैं मेरे शामो-सहर ,
कोई न कोई गम तो चाहिए जीने के लिए.
रफ़ीक तो मिले नहीं इस सारे जहाँ में ,
रक़ीबों का एहसान लेते हैं बहलने के लिए।
हाशिये में मुस्तकबिल के खड़ी है अनु ,
औ रो रही है अब भी अपने माज़ी के लिए।
ना खुदा है गीला है न शिकवा जहाँ से ,
अब तड़पना छोड़ दिया तक़दीर के लिए।
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