जीवन का मूल्यांकन (कविता)
जो बीत गयी ,
सो बात गयी।
बीते हुए कल को मुड़कर क्या देखना।
क्या पाया क्या खोया ,
पाकर भी कभी खो दिया।
शेष जो भी रह गया ,मूल्यांकन क्या करना।
हाँ ! देखे तो थे कुछ सपने ,
क्या वह थे कभी अपने।
शीशे ही तो थे टूट गए ,टूटने पर क्या रोना।
एक धोखा ही तो है वह ,
रूठकर चली जाती है जो।
उस बेवफा ख़ुशी के जाने का गम क्या करना।
एक गम की दौलत है पास अब ,
जी भरकर लूटा गया मेरा रब।
मुझे तो इसी गम से अब उम्र-भर निभाना।
क्यों पाली थी बेशुमार हसरतें ,
क्यों की बेवजह बेकार उम्मीदें ,
ना मुमकिन है इस जहां में इनका साकार होना.
खिलौना समझा हमें सदा उसने ,
कठपुतली सा नचाया सदा उसने ,
नियति है मानव -जीवन की यही ,फिर गिला क्या करना।
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