ऐ समझदार इंसान ! ( ग़ज़ल)
समझता है खुद को जाने क्या यह आज का इंसान ,
चाँद को छू लिया तो क्या इसने क़ायनात को पा लिया।
खुद को तो पहचाना नहीं ,खुदा को भी माना नहीं ,
देख गिरेबान में अपने और पूछ तूने क्या पा लिया.?
मशीनो के साथ रहकर खुद भी मशीन बन गया,
ज़िंदगी को खोकर आखिर तूने क्या पा लिया. ?
तुम्हें तो खबर ही नहीं की शायद तुम्हारे भीतर ,
बड़े अरसे से एक इंसान का खून हो गया।
कभी टटोला अपने दिल को ,कभी सुना ज़मीर को ,
अजी छोड़िये भी ! इतनी फुर्सत आपके पास है क्या ?
मगरिब से मशरिफ़ मिला है कभी जो अब मिलेगा,
तुम फूल हो जिस चमन के उसी को तुमने भुला दिया.
यह दौर -ऐ -जूनून है या नशा मंज़िल को पाने का,
तकब्बुर के सबब तुमने ख़ुदपरस्ती को अपना लिया.
करके मशरूफ़ियत का बहाना रहते अपने में खोये हुए ,
बड़े ज़माने से तुमने अपने प्यारों की सूरत देखी है क्या ?
अपनी खुदी से निकलकर दो खुद को बस एक मोहलत ,
फिर जानोगे- समझोगे तुम ,की तुमने सभ कुछ पा लिया.
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