प्रकृति का विलाप / चेतावनी (कविता)
मैं बदला लुंगी
अरे मानव!
मैने तुम्हें बहुत समझाया ,
और दिए कई संकेत .
मगर तुम न समझे .
जाने कितने ज़मानो से ,
और कितने बहानो से ,
किस किस तरीकों से ,
तुम्हें जतलाया की ,
अब बस भी करो !
बहुत हो गया !
मगर तुमने अपने लालच पर ,
अपनी महत्वाकाक्षयों पर ,
ज़रूरतों पर अंकुश नहीं लगाया .
वैसे तो तुम खुद को बहुत अक्लमंद समझते हो ,
इस पृथ्वी पर .
अन्य प्राणियों से खुद को सर्वोच .
जैसे तुम ही को प्राप्त है मुझ पर मालिकाना हक .
तभी तो !
तभी तो तुम्हें सिसकियाँ सुनाई नहीं देती .
आधुनिकता का नशा तुम पर ऐसा चडा है ,
मेरे आंसू तुम्हें दिखाए नहीं देते .
क्या करें !
मशीनों की आवाज़ों ने तुम्हारा दिमाग जो
ख़राब कर दिया है.
तुम तो यह भी भूल गए की एक तुम्हारे सिवा
मेरी और भी सन्ताने हैं
सिर्फ तुम ही नहीं .
इन जिव जन्तुयों , इन निरीह प्राणियों का
मैं एक मात्र सहारा हूँ .
माँ हूँ मैं उनकी भी
उनका भी मुझ पर उतना ही हक है
जितना की तुम्हारा .
तुम ! अरे तुमने तो मेरा अंग भंग कर दिया .
यह पेड़ मेरे बाजु है ,
जिन्हें तुमने काट डाला .
मेरा वक्ष स्थल ,यह पहाड़ ,
जिन्हें तुमने dynamite से उड़ा दिया .
जहाँ से बहा करती टी मेरी ममता .
नदियों के रूप में
मगर अब रक्त बहता है ,
आंसू बहते हैं .
यह केवल नदियों की बाड़ नहीं
मेरे आंसुओं की बाड़ है
जो बेसब्र हो कर बह निकली है
सच !बहुत पीड़ा हो रही है .
जो तुम्हें दिखाई नहीं दे रही है.
मगर अब बस !
मेरे सब्र का पैमाना भरने वाला है ,
अब तक जो सिर्फ छलका करता था ,
मगर सावधान !
महाप्रलय आने वाली है.
अब मुझसे कोई उम्मीद मत रखना
दया की ,करुणा की प्यार की .
अब तबाही के जिस मुकाम तक तुमने मुझे पहुँचाया है
जिस कगार पर लेकर ए हो तुम मुझे
अब तुम्हें कोई नहीं बचा सकता .
इश्वर भी नहीं!
मैं माँ तू हूँ ,और थी अब तक !
मगर अब कुदरत हूँ .
एक दिन अपने पर किये हर ज़ुल्म का बदला ज़रूर लुंगी .
मैं बदला लुंगी .
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