दिल्ली और द्रौपदी ( कविता)
ज़माना बदल गया , मगर
ना बदल सके हालात ,
तेरे लिए पहले भी ,अब भी
और सदा होती रहेगी महाभारत।
अँधा और मूक हो गर राजा ,
तो जनता क्यों न हो बेबस और आहत।
दुष्ट कौरवों से घिरी हुई है अब भी तू ,
कब ,कहाँ तुझे निजात मिली।
पाँच -पाँच पतियों के बावजूद भी
क्या तेरी लाज बची ?
उसे तो बचा लिया भगवान् ने आकर ,
मगर तुझे कौन बचायेगा
अगर आ भी जाये वोह मुरलीवाला ,
तो बेचारा खुद ही फंस जायेगा .
कौरवों से क्या वोह उलझेगा ,
खुद पांडवों से भी धोखा खायेगा।
क्योंकि दुश्मन और दोस्त में फर्क करना
बड़ा मुश्किल है .
यह दुश्मन है या वोह दोस्त ,
वोह दोस्त है और यह दुश्मन ,
इसमें बड़ा लोचा है।
यह मिलीभगत है या गहरी साजिश कोई।
समझना है बड़ा मुश्किल कि
इनमें तेरा अपना है कोई।
शतरंज कि बिसात बिछी ही अब भी ,
बिकते भी है और हारते भी है ,
और दांव पर तो अब भी लगा बैठे खुद को ,
तेरे यह पांच पांडव।
और तुझे तो पहले ही लगा चुके हैं दांव पर।
तेरी और अपनी इज़ज़त कि इन्हें कोई फ़िक्र नहीं ,
संसार थूके इनपर या इतिहास हँसे ,
इनके माथे पर कहीं कोई शिकन नहीं।
हैं यह काठ के उल्लू , कोई इंसान नहीं।
तेरी बदक़िस्मती कि हाय ! कोई इंतेहा नहीं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें