- दास्ताँ-ऐ-दरख्त (ग़ज़ल)
- कल था इसकी शाखों पर परिदों का शोर,
आज उनका घोंसला सुना हो गया.
खुशियों सी हरियाली और फूलों से जज़्बात,
फिजा का वोह रंग अब खिज़ा में बदल गया.
देता था जो पैगाम जहाँवालों को अमन का ,
आगाज़ वोह उल्फत का नफरत में बदल गया.
निराली थी जिसकी शान सारे गुलिस्तान में,
आज उसी के ज़बीं पर बदनुमा दाग रह गया.
हर आते-जाते मुसाफिर को साया देने वाला,
खुद देखो ! अब सेहरा में खो गया.
कल हँसता था वोह जिस वादे-सबा से हिल-मिल,
अब उसका भी इधर रुख ना रह गया .
उम्र भर अब लब पर आह और अश्क ,
बस यही उसके जीने का सबब रह गया.
सोमवार, 21 जनवरी 2013
dastan--ae-drakht (gazal)
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